SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 138 अनेकान्त 61/1-2-3-4 की जाती कि वे तीर्थंकरों व अन्य माननीय देवताओं की समान आकृतियां हैं, अपितु इसलिए कि वे उनके गुणों का असली सार लिए हुए हैं। इन भौतिक पदार्थों में दिव्य गुणोंका प्रदर्शन ही उन्हें अभिप्रेत है, ताकि इनके दर्शनों से भक्तों के मन में दिव्य सत्ता का आभास हो सके। इन मूर्तियों की पूजा का अभिप्राय इनके द्वारा प्रदर्शित दिव्यात्माओं की पूजा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इस तथ्य के आधार पर ही किसी सरोवर व भवन के अधिष्ठातृ देव की मान्यता का वास्तविक अर्थ हमारी समझ में आ सकता है। इस तरह तीर्थंकर की मूर्ति, एक धर्मप्रवर्तक व धर्मसंस्थापक के उन सभी सम्भाव्य दिव्य गुणों का सामूहिक प्रतीक है, जिन्हें देखकर साधक के चित्त में इनके प्रति श्रद्धा पैदा होती है। इसीलिए कहा गया है - ___ 'प्रतिष्ठानाम देहिनां वस्तुनश्च प्राधान्यमान्यवस्तुहेतुकं कर्म' अर्थात् प्रतिष्ठा एक प्रकार का संस्कार है, जिसके द्वारा संस्थापित पुरुष व वस्तु की महत्ता और प्रभाव को मान्यता दी जाती है। स्थापना या प्रतिष्ठावाद एक यति आचार्य पद पर आरूढ़ होने पर दीक्षित गिना जाता है। एक ब्राह्मण वैदिक साहित्य के अध्ययन द्वारा दीक्षित होता है, एक क्षत्रिय राज्य-शासन संभालने पर, एक वैश्य वैश्य-वृत्ति धारण करने पर, एक शूद्र राजकीय अनुग्रह का पात्र होने पर, और एक कलाकार उसका मुखिया नियुक्त होने पर दीक्षित कहा जाता है। इस प्रकार की दीक्षा व मान्यता के समय इनके भाल पर तिलक लगाकर इनको सम्मानित किया जाता है। इन तिलक आदि चिह्नों का यद्यपि भौतिक दृष्टि से कोई विशेष मूल्य नहीं है तथापि ये सामाजिक महत्ता व मान्यता के प्रतीक होने से बड़े महत्त्व के हैं। इसी तरह मूर्ति में जिन भगवान् के समस्त दिव्य गुणों का न्यास व स्थापन ही प्रतिष्ठा है। अथवा बिना किसी रूप के उनकी कल्पना करना ही प्रतिष्ठा है। ऐसे अवसर पर या तो जिन भगवान् के व्यक्तित्व का उनके गुण-समूह में प्रवेश कराया जाता है, या गुण-समूह देवता के व्यक्तित्व का अतिक्रम कर जाते हैं। इस तरह प्रस्तर, धातु, काष्ठ आदि पदार्थों में से रूप-सहित व रूप-रहित उत्कीर्ण हुए प्रतिबिम्ब जिन्हें जिन, शिव, विष्णु, बुद्ध, चंडी, क्षेत्रपाल आदि संज्ञाएं दी जाती हैं, पूज्य बन जाते हैं। चूंकि इनमें मान्यता द्वारा कल्पित देवत्व का समावेश किया जाता है। इसी तरह कल्पना द्वारा भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के गुणों का मूर्तियों में प्रदर्शन माना जाता है। और ठीक इसी तरह अर्हन्तों, सिद्धों आदि की मूर्तियों की
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy