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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 139 स्थापना के समय, तथा घरेलू जलाशयों और कूप-सम्बन्धी देवताओं की स्थापना के समय, उनमें दिव्य गुणों व विभूतियों की मान्यता की जाती है; उनका मूर्तियों में वास्तविक अवतरण अभिप्रेत नहीं होता। जब किसी रूप-सहित या रूप-रहित पदार्थों में संस्कारों द्वारा यह धारणा बना ली जाती है कि उसमें अमुक पुरुष व देव के समस्त शास्त्रीय लक्षण विद्यमान हैं, तो वह पदार्थ उस पुरुष या देव का प्रतिनिधि बन जाता है। धारणा द्वारा गुणों का न्यास या स्थापना ही प्रतिष्ठा है। श्रुतेन सम्यग्ज्ञातस्य व्यवहारप्रसिद्धये स्थाप्यस्य कृतनाम्नोऽन्तः स्फुरतो न्यासगोचरे साकारे वा निराकारे विधिना यो विधीयते न्यासस्तदिदमित्युक्त्वा प्रतिष्ठा स्थापना च सा।' उक्त स्थापनावाद जैनधर्म के देव-मूर्तिवाद से पूरे तौर पर मेल खाता है। क्योंकि परमेष्ठी-जिन मुक्त आत्मा हैं और वे जड़, अचेतन प्रस्तर व काष्ठखंडों में अवतरित नहीं हो सकते, जैसे कि शिव, विष्णु आदि हिन्दू देवताओं के सम्बन्ध में – जो कि अलौकिक शक्ति-सम्पन्न देव माने जाते हैं - सम्भव माना जाता है। जैन और हिन्दू परम्पराओं में यह एक मौलिक अन्तर है, जिसे जैन मूर्तियों की स्थापत्यकला को अध्ययन करते समय सदा ध्यान में रखना ज़रूरी है। जैन धर्म में बुद्धिवाद यहां तक विकसित है कि वह ब्राह्मणिक मान्यता के समान आकाश, मेघगर्जना व विद्युद्घटा में किसी देवत्व को मान्यता नहीं देता। उसके अनुसार ये सब प्राकृतिक व वैज्ञानिक परिणमन है जो उक्त प्रकार की घटनाओं के लिए उत्तरदायी हैं; वर्षा वायु में मौजूद किन्हीं परिवर्तनों के कारण होती है, किसी दिव्य शक्ति की इच्छा के कारण नहीं। यह कहना सब असत्य है कि विश्व में आकाश-देवता, गर्जन-देवता, विद्युद् देवता आदि कोई देव सत्ता में मौजूद हैं; या यों कहना चाहिए कि 'देवता वर्षा करता है' इत्यादि प्रकार की सब बातें असत्य हैं। इस प्रकार की वचन-शैली साधु या साध्वी के लिए वर्त्य है। अपितु कहना चाहिए कि वायु गुह्य अनुसारी मेघ छा गये हैं, झुक गये हैं, बरसने लगे हैं। जैन अंनुश्रति में अर्हन्त व सिद्ध देवों की मानवाकार मूर्तियों की चर्चा प्राचीन काल से चली आती है। उड़ीसा देश में उदयगिरि-खंडगिरि-स्थित कलिंग सम्राट खारवेल के यहाँ जिस आदिनाथ ऋषभदेव की मूर्तिका उल्लेख है उससे नन्दवंश के काल में भी तीर्थंकरों की मूर्तियों का होना सिद्ध होता है। जैसा कि कल्पसूत्र में वर्णन है, पशुओं और देवताओं के चित्र यवनिका पर
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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