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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 133 सन्दर्भ एवं टिप्पणियां: १. देखिये (क) आत्मख्याति-समन्वित समयप्राभृत, ढूंढारी हिन्दी वचनिका प० जयचन्द जी छाबडा (श्री मुसद्दीलाल जैन चैरिटेबल ट्रस्ट दरियागज नई दिल्ली, 1988), पृ० 463-65. (ख) आत्मरख्याति एव तात्पर्यवृत्ति समन्वित समयसार, प० जयचन्दजी छाबडा की वचनिका के खडी -बोली रूपान्तर सहित सशोधित संस्करण (अहिसा मन्दिर प्रकाशन, दरियागज नई दिल्ली 1959), पृ० 396-98. (ग) समयसार प्रवचन-सहित, सम्पादन डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य (श्री गणेश वर्णी दि० जेन सस्थान वाराणसी तृ० स० 2002), पृ० 322 23. (घ) Samayasara (including Aimakhyati); Introduction and Translation : Prot. A Chakravarti (Bharatiya Jnanapitha.Kashi, I"Edn . 1950), pp. 191-92. (ड) आत्मख्याति. तात्पर्यवृत्ति एव स्वोपज्ञ-तत्त्वप्रबोधिनी टीकात्रय-समन्वित समयसार, टीका अनुवाद-सम्पादन प० मोतीचन्द्र कोठारी (श्री ऋषभनाथ दि० जैन ग्रन्थमाला, फलटण, 1969), खण्ड 4 पृ० 1199-1203. 2. दखिय (क) आत्मख्याति-समन्वित समयसार, प० जयचन्दजी छाबडा की वचनिका पर आधारित गुजराती व्याख्या ५० हिम्गतलाल जेठालाल शाह (सोनगढ) गुजराती व्याख्या का हिन्दी रूपान्तर प० परमेष्ठीदारा न्यायतीर्थ (५० टोडरमल रमारक ट्रस्ट प्रकाशन जयपुर, 1983), पृ० 493-95. (ख) क्रमबद्धपर्याय, डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल (श्री दि० जेन रवाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ, 1980), पृ० 18-19. 3. क्रमवद्धपर्याय', इस शब्द का जिक्र करने वाली सम्भवत पहली पुस्तक-- वस्तुविज्ञानसार, गुजराती से हिन्दी अनुवाद प० परमेष्ठीदारा जेन न्यायतीर्थ, श्री जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ, काठियावाड 1948. 4. सर्वविदित है कि समयसार पर 'आत्मख्याति', प्रवचनसार पर तत्त्वप्रदीपिका', पचास्तिकाय पर 'समयव्याख्या' - ये तीन टीकाग्रन्थ, तथा 'तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय' और 'लघुतत्त्वस्फोट - ये तीन स्वतन्त्र कृतिया, इस प्रकार कुल छह रचनाए आचार्य अमृतचन्द्र का अभी तक ज्ञात कृतित्व है। 5. "जो परिणमित होता है वह 'कर्ता' है, (परिणमित हान वाले या परिणमन करने वाले का) जा परिणाम है वह उसका कर्ग' अथवा कार्य है" (समयसार आत्मख्याति टीका, कलश सख्या 51, पूर्वाद्ध)। इस प्रकार, ‘कर्ता (उपादान) एव उसका परिणामरूपी 'कार्य', दोनो सदा एक ही द्रव्य मे होत है। यह परिभाषा निश्चयनय की विषयभूत है। अन्यत्र, जहाँ अन्य (निमितरूप) द्रव्य को 'कर्ता कहा जाता है, वहाँ व्यवहार से ऐसा कहा जाता है। 6. आलापपद्धति, सूत्र 106, हिन्दी अनुवाद एव टीका प० रतनवन्दजी जेन मुख्तार (श्री शान्तिवीर दि० जैन सस्थान, श्रीमहावीरजी 1970), पृ. 149.
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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