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अनेकान्त 61/1-2-3-4
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7. देखिये : जैनदर्शन में बन्ध का स्वरूप : वैज्ञानिक अवधारणाओं के सन्दर्भ में', लेखक :
अनिलकुमार गुप्त; 'श्रमण' (पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी), वर्ष 26, अंक 5 (मार्च 1975), पृ० 3-9. "यत्तु द्रव्यैरारभ्यते न तद्रव्यान्तरं कादाचित्कत्वात् स पर्यायः । द्वयणुकादिवन्मनुष्यादिवच्च। द्रव्यं पुनरनवधि त्रिसमयावस्थायि न तथा स्यात्।" अर्थ : जो द्रव्यों से उत्पन्न होता है वह द्रव्यान्तर नहीं है; किन्तु कादाचित्क या अनित्य होने से पर्याय है, जैसे द्वि-अणुक इत्यादि
और मनुष्य इत्यादि । पुनश्च, द्रव्य तो अनवधि/सीमारहित यानी अनादि-अनन्त अथवा त्रिकाल-अवस्थायी होने से उत्पन्न नहीं होता। (प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार,
गाथा 98, तत्त्वप्रदीपिका टीका) 9. "न खलु द्रव्यैर्द्रव्यान्तराणामारम्भः, सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात्। स्वभावसिद्धत्वं तु
तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते।" अर्थ : वास्तव में, द्रव्यों से द्रव्यान्तरों की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सभी द्रव्यों के स्वभावसिद्धपना है (सभी द्रव्य, परद्रव्य की अपेक्षा के बिना, अपने स्वभाव से ही सिद्ध हैं); और उनकी स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादिनिधनता से है, क्योंकि अनादिनिधन पदार्थ अन्य साधन की अपेक्षा नहीं
रखता। (प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार, गाथा 98, तत्त्वप्रदीपिका टीका) 10. प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार, गाथा 100, तत्त्वप्रदीपिका टीका (श्री कुन्दकुन्द
कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, पंचमावृत्ति, 1985), देखिये पृ० 199,
पादटिप्पणी में दिया गया संशोधित पाठ। 11. (क) “स्वजात्यपरित्यागेनावस्थितिरन्वयः" अर्थात् अपनी जाति को न छोडते हुए उसी रूप
से अवस्थित रहना अन्वय है। (राजवार्तिक, अ० 5. सू० 2. वा०1) (ख) सामान्य, द्रव्य, अन्वय और वस्तु, ये सब अविशेष रूप से (यानी 'विशेष' की विवक्षा
न करते हुए) एकार्थवाचक हैं। (पंचाध्यायी, अ० 1, श्लोक 143) (ग) "अन्वयो द्रव्यं, अन्वयविशेषणं गुणः, अन्वयव्यतिरेकाः पर्यायाः।" अर्थात् अन्वय है सो
द्रव्य या द्रव्यसामान्य है; अन्वय/द्रव्य का विशेषण है सो गुण है; और अन्वय/द्रव्य
के व्यतिरेक अथवा भेद हैं वे पर्यायें हैं। (प्रवचनसार, गाथा 80. तत्त्वप्रदीपिका टीका) 12. अपरित्यक्तस्वभावेनोत्पादव्ययध्रुवत्वसम्बद्धम्।
गुणवच्च सपर्यायं यत्तद्रव्यमिति ब्रुवन्ति ।।
(प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार, गाथा 95. संस्कृत छाया) 13. समयसार पर दिये गए अपने प्रवचनों में, क्षुल्लक श्री गणेशप्रसादजी वर्णी ने गाथा 103
एवं गाथाचतुष्क 308-11 के बीच विषयसाम्य का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है; देखिये
सन्दर्भ 1(ग)। 14. Sanskrit-English Dictionary, Monier-Williams (Motilal Banarsidass, 2002), ___p.319. 15. संस्कृत-हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे (मोतीलाल बनारसीदास, द्वि० सं०, 1969), पृ०
309.
16. देखिये : (क) सन्दर्भ 14; (ख) सन्दर्भ 15, पृ० 310. 17. पंचास्तिकाय, गाथा 9, पूर्वार्द्ध की संस्कृत छाया। 18. परमाध्यात्मतरंगिणी : अमृतचन्द्राचार्य के समयसार-कलश पर शुभचन्द्र भट्टारक की
टीका; वीरसेवामन्दिर प्रकाशन, दिल्ली, 1990, पृ० 2.