SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 132 अनेकान्त 61/1-2-3-4 के अन्तर्गत उत्पाद-व्यय को भी शामिल कर लेना चाहिये, जैसा कि ऊपर दिये गए विभिन्न आर्ष आचार्यों के उद्धरणों से सुस्पष्ट है। जब वस्तुस्वरूप ही ऐसा है कि द्रव्य स्वयं तो द्रव्यान्तरण की अशक्यता सुनिश्चित करने में समर्थ है ही, पर्यायें भी उसी सुनिश्चितकारिता से सज्जित हैं - जिस सामर्थ्य को स्पष्ट रूप से बतलाने के लिये ही आचार्यश्री ने प्रकृत वाक्य के अन्त में सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्म्यात् कहना जरूरी समझा है - तब उन 'समर्थ' परिणामों/पर्यायों को उसी कार्य (द्रव्यान्तरण की अशक्यता) की सुनिश्चिति हेतु 'क्रमबद्धता' रूपी अक्षम बैसाखी की जरूरत भला क्यों पड़ने लगी? साफ जाहिर है कि कथित 'क्रमबद्धता' चाहे जिस किसी व्यक्ति की भी कल्पना की उपज हो, वहाँ द्रव्यानुयोग के मूल सिद्धान्तों को आत्मसात् करने में कोई गहरी चूक जरूर हुई है। __इस सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थत्रय के अभ्यासी, अनुभवी महानुभावों का एक कथन ध्यान मे आता है कि समयसार के अध्ययन से पहले प्रवचनसार का गभीर अध्ययन किया जाना आवश्यक है। "क्रमनियमन का अर्थ क्रमबद्धता है," ऐसी कल्पना अथवा परिकल्पना को पेश किये जाने से पहले, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार के प्रारम्भ की (द्रव्य-गुण-पर्याय का निरूपण करने वाली) दस-बारह गाथाओं के और उन पर तत्त्वप्रदीपिका टीका के भावार्थ को यदि सम्यक्रूपेण हृदयंगम किया गया होता, और उनके आलोक में "आचार्य अमृतचन्द्र का अभिप्राय क्या है," यदि इस प्रश्न पर ईमानदारीपूर्वक ऊहापोह किया गया होता तो सम्भवतः इस विवाद का जन्म ही न होता । तो भी, न्यायोचित होगा कि उक्त कल्पना के जनक को निष्पक्षभाव से धन्यवाद दिया जाए, क्योंकि किसी मुद्दे के विवादग्रस्त होने पर ही वह विचारणा के केन्द्रबिन्दु (focus) पर आता है, और बहुधा देखा गया है कि मुद्दे का फोकस पर आना उसका हल खोजे जाने में एक निमित्त हो जाता है। कृतज्ञताभिव्यक्ति : जिन्होने साठ के दशक में प्रकाशित एक ट्रैक्ट" के माध्यम से, 'पर्यायों की क्रमबद्धता' की कथित अवधारणा का अनेकानेक आगम-प्रमाणों के आधार से भली-भॉति निष्पक्ष परीक्षण करके, उसकी अयथार्थता को प्रतिपादित किया था - ऐसे अपने प्रथम गुरु, करणानुयोगविशेषज्ञ, सिद्धान्तमर्मज्ञ स्व० श्री रतनचन्दजी जैन मुख्तार की स्मृति को यह लघुलेख कृतज्ञभाव से समर्पित है, जिन्होने ही इस अज्ञ का जिनसिद्धान्त में प्रवेश भी कराया।
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy