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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 117 93. (क) मनुष्य, नारक, तिर्यच और देवरूप पर्याये 'विभावपर्याये' है। वे विभावपर्याये अथवा अशुद्धपर्याये स्व-पर-सापेक्ष होती हैं, अर्थात् 'स्व' यानी उपादान, और 'पर' यानी निमित्त दोनो की अपेक्षा रखती हैं। (नियमसार, गाथा 14-15, पद्मप्रभमलधारिदेवकृत टीका सहित) (ख) "बाह्येतरोपाधिसमग्रतेय कार्येषु ते द्रव्यगत स्वभाव" अर्थात् कार्योत्पत्ति के लिये बाह्य और आभ्यन्तर, निमित्त और उपादान, दोनो कारणो की समग्रता ही द्रव्यगत निज स्वभाव है। (स्वयम्भूस्तोत्र, 12-5, देखिये सन्दर्भ 36, पृ० 101-02) 94. "जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य, समुचित बहिरग साधनो के सान्निध्य के सद्भाव मे, अन्तरग साधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण के सामर्थ्यरूप स्वभाव से सहित हआ उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हआ उत्पादरूप देखा जाता है।' (प्रवचनसार, गाथा 95, अमृतचन्द्राचार्यकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका) 95. देखिये जैनदर्शन, सन्दर्भ 47. पृ० 92-93. 96. "सर्वे भावा स्वभावेन स्वस्वभाव-व्यवस्थिता । न शक्यन्तेऽन्यथाकर्तु ते परेण कदाचन।।9/46 ।।" "सब द्रव्य/पदार्थ स्वभाव से अपने-अपने स्वरूप मे स्थित है, वे पर के द्वारा कभी अन्यथारूप नहीं किये जा सकते।" भाष्य यहाँ एक बहुत बडे अटल सिद्धान्त की घोषणा की गई है यह कि स्वभाव से ही अपने-अपने स्वरूप मे व्यवस्थित रहने वाले, समस्त पदार्थों को कोई दूसरा द्रव्य/पदार्थ अन्यथा करने मे, यानी स्वभाव से च्युत करने मे अथवा पर-रूप परिणत करने मे, कदापि समर्थ नही होता। (आचार्य अमितगतिकृत योगसार-प्राभृत, चूलिकाधिकार, सम्पा०-भाष्य श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार, भारतीय ज्ञानपीठ, द्वि० स०. 1999, पृ० 211) 97. 'णाण णेयप्पमाणमुद्दिट्ट' (प्रवचनसार, गाथा 23) 98. वस्तुविज्ञानसार, सन्दर्भ 43. पृ० 12. 99. स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक 42. 100. 'परमागमस्य जीव अनकान्तम् ' (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक 2) 101. (क) अप्टसहस्री कारिका 87, सन्दर्भ 11, पृ० 252. (ख) अष्टसहस्री, तृतीय भाग, फारिका 87, सन्दर्भ 90, पृ० 423-24. (ग) यह भी देखिये आप्तमीमासा, सन्दर्भ 30, पृ० 279. 102. धवला टीका, 5, 5 50, पु० 13, पृ० 286. 103. देखिये पचाध्यायी, अ० 1. श्लोक 743. 104. देखिये प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका टीका, परिशिष्ट, क्रम स० 14 पर 'द्रव्यनय-विषयक कथन। 105. क्रमबद्धपर्याय, सन्दर्भ 84, पृ० 43. 106. (क) “उपादान उत्तररय कार्यस्य सजातीयं कारणम्" अर्थात् उत्तर पर्याय/ कार्य का सजातीय कारण, उपादान कहलाता है। (न्यायविनिश्चय विवरण, 1/132) (ख) पूर्वपरिणामयुक्त कारणभावेन वर्तते द्रव्यम् । उत्तरपरिणामयुक्त तदेव कार्यम्भवेत् नियमात् ।।222 ।। कारणकार्यविशेषा त्रिष्वपि कालेषु भवन्ति वस्तूनाम् ।
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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