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अनेकान्त 61/1-2-3-4
उपर्युक्त लेखक ने दृष्टान्त को खींचकर, उसे जानबूझकर दृष्टान्ताभास बना दिया है,
और यह सिद्ध करने की असफल कोशिश की है कि द्रव्य में पर्यायें क्रमबद्ध रूप से पडी होती हैं। ___ ज्ञातव्य है कि “पदार्थ में अनेकानेक कार्य (हम जैनो के लिये, पर्याय) एक-साथ पडे हैं और वे केवल प्रकट व अप्रकट होते रहते हैं, उसी तरह, जैसे कि कछुआ अपनी गर्दन अपने पृष्ठकवच से बाहर निकालता है और भीतर खींच लेता है," यह ऐकान्तिक सिद्धान्त जैनों का नहीं, प्रत्युत सांख्यमतियों का है। उनके इस सिद्धान्त का नाम 'सत्कार्यवाद' है, जिसके अनुसार न पदार्थों की उत्पत्ति होती है और न विनाश, किन्तु उनका आविर्भाव/प्रकटन
और 'तिरोभाव'/अप्रकटन होता रहता है। (देखिये : The Samkhya Karika of Isvara
Krishna, Suryanarayana Sastri, Madras Univ., 1933)] 85. प्रवचनसार, गाथा 37, अमृतचन्द्राचार्यकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका। 86. वही, जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति। 87. चित्रपट अथवा भित्तिचित्र आदि के माध्यम से प्रदर्शित घटनाओं में कुछ-एक, संख्यात
परिवर्ती (variables) हो सकते हैं, जबकि दिव्य, प्रत्यक्ष ज्ञान मे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भावरूप आयामों समेत, अनन्तानन्त ज्ञेयों के रूप से अनन्तानन्त ही परिवर्ती (variables) होते है।
इसी अभिप्राय से केवलज्ञान को अनन्त-आयामी कहा गया है। 88. देखिये - जयधवला, सन्दर्भ 19(क), पृ० 20. 89. देखिये वही, पृ० 20. 90. ज्ञातव्य है कि प्रध्वंस-अभाव और भूतपर्यायशक्ति में कोई अन्तर नहीं है, जब हम किसी
पदार्थ की किसी विवक्षित पर्याय को दृष्टि मे लेते हैं तो उस पर्याय की 'व्यक्ति' का अभाव (यानी पर्याय का 'व्यय') ही उसका प्रध्वंसाभाव कहा जाता है। परन्तु यह प्रध्वंसाभाव/व्यय किसी भी प्रकार से उस पर्याय का अत्यन्ताभाव नहीं है, वह व्ययगत पर्याय मात्र भूतशक्ति-रूप-से उस पदार्थ में अब भी मौजूद है।
इसी प्रकार, प्राग्-अभाव और भविष्यत्पर्यायशक्ति में भी कोई अन्तर नही है, जब हम किसी पदार्थ की किसी सम्भावित पर्याय को दृष्टि मे लेते हैं तो उस पर्याय की 'व्यक्ति' का अभाव (यानी पर्याय का वर्तमान में अनुत्पाद) ही उसका प्रागभाव कहा जाता है। परन्तु यह प्रागभाव/ अनुत्पाद किसी भी प्रकार से उसका अत्यन्ताभाव नही है, वह अनुत्पन्न पर्याय मात्र भविष्यत्शक्ति-रूप-से उस पदार्थ में अब भी मौजूद है। देखिये : जयधवला, सन्दर्भ
19(क), पृ० 19-20, तथा धवला, 1, 9-1, 14, पु० 6. पृ० 29] 91. "नयोपनयैकान्तानां त्रिकालाना समुच्चय ।
अविभ्राड्भावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा।।" तीनो कालों को विषय करने वाले जो नैगम-सग्रहादिनय हैं (और उनकी शाखाप्रशाखारूप जो भेद-प्रभेदात्मक उपनय हैं)-उन नयो/उपनयों के विषयभूत जो (सम्यक) एकान्त हैं (कैसे “एकान्त' हैं? जो कि विपक्ष की उपेक्षा को करके होते है, न कि विपक्ष का सर्वथा त्याग करके ।), ऐसे उन त्रिकालसम्बन्धी एकान्तों/पर्यायो का कथंचित् अपृथक् सम्बन्धरूप समुच्चय/समुदाय ही द्रव्य है, वही वस्तु है। {आप्तमीमांसा, कारिका 107, अष्टसहस्री टीका सहित (अनु० · आर्यिका ज्ञानमती, दि० जैन त्रिलोक शोध
संस्थान, हस्तिनापुर, तृ० भाग, 1990, पृ० 576-77)] 92. देखिये : जयधवला, सन्दर्भ 19(क). पृ० 19-20.