________________
अनेकान्त 61:1-2-3-4
115
73. देखिये : सन्दर्भ 47. पृ० 82-84. 74. (क) आहारादिविषयाभिलाषः संज्ञेति । अर्थ : आहार आदि विषयों की अभिलाषा/इच्छा
को संज्ञा' कहा जाता है। (सर्वार्थसिद्धि, 2/24) (ख) सण्णा चउव्विहा आहार-भय-मेहुण-परिग्गहसण्णा चेदि । अर्थ : संज्ञा चार प्रकार की है, आहारसंज्ञा. भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । (धवला, 1, 1; पु० 2: द्वि० सं०.
1992, पृ० 415) 75. देखिये : (क) तिलोयपण्णत्ती, आठवां महाधिकार, सन्दर्भ 67(क)
(ख) आदिपुराण, पर्व 11. सन्दर्भ 69. 76. तिलोयपण्णत्ती, आठवां महाधिकार, गाथा 664; सन्दर्भ 67(क), पृ० 603. 77. वही, गाथा 555, पृ० 582. 78. देखिये : सर्वार्थसिद्धि, 3/37; सन्दर्भ 52, पृ० 173. 79. वरतविज्ञानसार, सन्दर्भ 43, पृ०10 व 11. 80. (क) जयधवला; सन्दर्भ 19(क). पृ० 19. (ख) “णट्ठाणुप्पण्ण अत्थाणं कधं तदो परिच्छेदो? ण, केवलत्तादो बज्झत्थावेक्खाए विणा
तदुप्पत्तीए विरोहाभावा ।" शंका : जो पदार्थ नष्ट हो चुके हैं, और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं. उनका केवलज्ञान से कैसे ज्ञान हो सकता है? समाधान : नहीं, क्योंकि केवलज्ञान के सहाय-निरपेक्ष होने से, बाह्य पदार्थों की अपेक्षा के बिना, उनके (विनष्ट और अनुत्पन्न अर्थों के) ज्ञान की उत्पत्ति में कोई विरोध नहीं है।
(धवला, 1, 9-1, 14: पु० 6, पृ० 29) 81. देखिये : जयधवला, सन्दर्भ 19(क), पृ० 20. 82. प्रवचनसार, गाथा 38, ता० ० (सम्पा० : पं० अजितकुमार शास्त्री एवं पं० रतनचन्द जी
जैन मुख्तार, श्री शान्तिवीर दि० जैन संस्थान, श्रीमहावीरजी, 1969), पृ० 92. 83. (क) "कार्यस्यात्मलाभात् प्रागभवनं प्रागभावः" अर्थात् कार्य के पैदा होने से पूर्व जो उसका
__ अभाव रहता है उसे प्रागभाव कहते हैं। (अष्टसहस्री; संदर्भ 11, पृ० 97) (ख) “प्राक पूर्वस्मिन्नभावः असत्त्वं प्रागभावः । मत्पिण्डे घटस्यासत्त्वमित्यर्थः। ... प्रध्वसस्य
च विनाशस्य च घटस्य कपालनाशादय इत्यर्थः ।"
(आप्तमीमांसा, कारिका 10; आचार्य वसुनंदिकृत वृत्ति; संदर्भ 10, पृ० 8) (ग) “कार्यस्यैव पूर्वेण कालेन विशिष्टोर्थः प्रागभावः, परेण विशिष्टः प्रध्वंसाभावः" (अष्टसहस्री;
___ संदर्भ 11, पृ० 99) (घ) कार्य के स्वरूपलाभ करने के पश्चात् जो अभाव होता है, अथवा जो कार्य के
_ विघटनरूप है वह प्रध्वंसाभाव है। (जयधवला, सन्दर्भ 19(क), पृ० 227] 84. देखिये : क्रमबद्धपर्याय. डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल (श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ़, 1980), पृ० 38-40) (प्रवचनसार, गाथा 99 में द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक स्वभाव का निरूपण किया गया है। इस गाथा की तत्त्वप्रदीपिका टीका में, विभिन्न उत्पाद-व्ययात्मक परिणामों में जो अनुस्यूत है वह प्रवाहात्मक ध्रौव्य है; यह समझाने के लिये, आचार्य अमृतचन्द्र ने मोतियों के हार का दृष्टान्त दिया है। यद्यपि हार में सारे मोती एक-साथ होते हैं, परन्तु द्रव्य में पूर्वोत्तर पर्यायें एक-साथ नहीं होती, ऐसा जिनागम में असंदिग्ध रूप से प्रतिपादित किया गया है। परन्तु, आचार्यश्री के अभिप्राय के विपरीत,