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________________ 114 अनेकान्त 61/1-2-3-4 सम्पा० सिद्धान्ताचार्य प० फूलचन्दजी शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ चतुर्थ स०, 1989, पृ० 126) 53. "लम्भन लब्धि । का पुनरसौ? ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेष ।" अर्थ 'लब्धि' शब्द का अर्थ है प्राप्त होना । लब्धि किसे कहते है? ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमविशेष को लब्धि कहते है। (सर्वार्थसिद्धि 2/18) 54. राजवार्तिक, अ० 1, सू० 29, वार्तिक 9, श्री गुणभद्राचार्य का यह कथन भी देखिये 'जिस पृथिवी के ऊपर सभी पदार्थ रहते हैं वह पृथिवी भी दूसरो के द्वारा, अर्थात् घनोदधि, घन और तनु वातवलयो के द्वारा धारण की गई है। वह पृथिवी और वे तीनो ही वातवलय भी आकाश के मध्य मे प्रविष्ट है। और, वह अनन्तानन्त आकाश भी केवलियो के ज्ञान के एक कोने मे निलीन है समाया हुआ है।' (आत्मानुशासन जैन सस्कृति सरक्षक सघ शोलापुर द्वि० स० 1973 पृ० 202-03) 55. त्रिलोकसार, गाथा 13-14, श्री माधवचन्द्र विद्यदेवकृत टीका सहित (सम्पा० प० रतनचन्द जैन मुख्तार एव डॉ० चेतनप्रकाश पाटनी श्री शान्तिवीर दि० जैन सस्थान श्रीमहावीरजी, 1975). पृ० 14-15. 56. वही, गा048-51, पृ० 46-48. 57. परमात्मप्रकाश दोहा 47. 58. देखिये सन्दर्भ 55, पृ० 48. 59. वस्तुविज्ञानसार सन्दर्भ 43 पृ० 71. 60. (क) धवला 4 1 3, पु० 9 पृ० 42 व 48. (ख) सन्दर्भ 55 गा० 83-84, पृ० 74-81. 61. सन्दर्भ 60(क) पृ० 50-51. 62. सर्वार्थसिद्धि अ० 10 सू० 8. 63. पचास्तिकाय समयव्याख्या सहित, श्री शान्तिसागर जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी सस्था श्रीमहावीरजी 1964) पृ० 247. 64. देखिये राजवार्तिक 10/8. 65. दखिये श्लोकवार्तिक 10/8. 66. ततोऽप्यूदर्ध्वगतिस्तेषा कस्मान्नास्तीति चेन्मति। धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गते पर ।। 44 ।। (तत्त्वार्थसार अष्टमाधिकार) 67. (क) तिलोयपण्णत्ती अट्ठमो महाहियारो गाथा 708-10 (अनु० आर्यिका विशुद्धमति सम्पा० डॉ० चेतनप्रकाश पाटनी, श्री 1008 चन्द्रप्रभु दि० जैन अतिशयक्षेत्र देहरा-तिजारा द्वि० स० 1997) पृ० 613. (ख) त्रिलोकसार गाथा 527, सन्दर्भ 55 पृ० 451. 68. तिलोयपण्णत्ती 8/692-94, सन्दर्भ 67(क) पृ० 610. 69. देखिये आदिपुराण पर्व 11 श्लोक 154-55 (सम्पा०-अनु० डॉ० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली तृ० स० 1988) पृ० 240. 70. त्रिलोकसार गाथा 554, सन्दर्भ 55, पृ० 473. 71. दैवमेव पर मन्ये धिकपौरुषमनर्थकम्। (गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा 891, पूर्वार्द्ध सस्कृत छाया) 72. (क) अज्ञानी खलु अनीश आत्मा तस्य सुख च दुख च। स्वर्ग नरक गमन सर्वं ईश्वरकृत भवति।। (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा 880, सस्कृत छाया) (ख) अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मन सुखदु खयो । ईश्वरप्रेरिता गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा।। (महाभारत, वनपर्व, 30/2)
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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