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________________ 118 अनेकान्त 61/ 1-2-3-4 एकैकस्मिन् च समये पूर्वोत्तरभावमासाद्य । 223 ।। (स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, सस्कृत छाया) अर्थ पूर्व परिणाम सहित द्रव्य कारणरूप है और उत्तर परिणाम सहित द्रव्य नियम से कार्यरूप है। वस्तु के पूर्व और उत्तर परिणामो को लेकर तीनो ही कालो मे प्रत्येक समय मे कारण-कार्यभाव होता है । 107. (क) द्विविधो हेतुर्बाह्य आभ्यन्तरश्च ।" (राजवार्तिक, 2/8/1 ) (ख) "प्रत्यय कारण निमित्तमित्यनर्थान्तरम् ।" (सर्वार्थसिद्धि, 1/21) (ग) "निमेदति सह करोतीति निमित्तम्" अर्थात् दो पदार्थों की परिणतिया समकालवर्तिनी होते हुए, जिसकी परिणति उपादानभूत अन्य पदार्थ की परिणतिक्रिया मे सहायक होती है वह पदार्थ 'निमित्त' कहलाता है। (समयसार, स्वोपज्ञतत्त्वप्रबोधिनी टीका, प० मोतीचन्द्र कोठारी, अनेकान्त ज्ञानमन्दिर शोध संस्थान, खण्ड-1, द्वि० स०, 2004, पृ० 36-37) 108. (क) “एक द्रव्य की दो अनन्तरकालवर्ती पर्यायो मे एकद्रव्यप्रत्यासत्तिरूप उपादान-उपादेय सम्बन्ध होता है। प्रश्न सहकारी कारणो के साथ पूर्वोक्त कार्य-कारणभाव कैसे ठहरेगा, क्योकि वहाँ एकद्रव्यप्रत्यासत्ति नाम के सम्बन्ध का तो अभाव है? उत्तर काल- प्रत्यासत्ति नामक सम्बन्ध से वहाँ कार्य-कारणभाव सिद्ध हो जाता है। जिससे अव्यवहित उत्तरकाल मे नियम से जो अवश्य उत्पन्न हो जाता है वह उसका सहकारी कारण है और शेष दूसरा कार्य है।” (श्लोकवार्तिक, अ० 1, सू० 7, वार्तिक 13, सन्दर्भ 51, чo 151) (ख) देखिये सन्दर्भ 94 का उद्धरण। 109. देखिये, सन्दर्भ 22. 110. गाथा 320 का चौथा चरण है "एव चितेइ सद्दिट्ठी" अर्थात् "सम्यग्दृष्टि इस प्रकार चितवन करता है।" न्यायशास्त्र के सन्दर्भानुसारी प्रयोग के अनुसार प्रकृत मे मध्यदीपकन्याय लागू पडता है जिसका तात्पर्य है कि एव चितेइ सद्दिट्ठी' पूरे गाथाचतुष्क, यानी 319 से 322 तक चारो गाथाओ पर लागू (applicable) होगा। जाहिर है कि गाथा 321-22 मे स्वामी कुमार अपने पूर्ववर्ती श्री कुन्दकुन्ददेव, स्वामीसमन्तभद्र आदि महान आचार्यों से भिन्न, किसी नूतन या अपूर्व सिद्धान्त का प्रतिपादन नही कर रहे हैं, प्रत्युत परिणामों को सँभालने के सन्दर्भविशेष के अन्तर्गत, ज्ञानापेक्ष नय की विषयभूत कथचित् नियति को प्रयोजनवश मुख्य करके उसका अवलम्बन लेते हुए सम्यग्दृष्टि द्वारा की जाने वाली विचारणा / भावना / अनुप्रेक्षा का निरूपण कर रहे है। आधुनिक नियतिवाद के प्रचारक भी उपर्युक्त आशय से सहमत दीखते है, जैसा कि वस्तुविज्ञानसार' नामक पुस्तक (देखिये सन्दर्भ 43 पृ० 2, पक्ति 2 एव पक्ति 18-19 ) स्वीकार किया गया है कि "इस प्रकार सम्यग्दृष्टि विचार करता है।" विडम्बना यह है कि अपनी इसी पुस्तक मे आगे चलकर वे खुद एव उनके आज्ञानुसारी (न कि परीक्षाप्रधानी) समर्थक भी इस एकनयावलम्बी विचारणा / भावना / अनुप्रेक्षा को प्रमाणभूत सिद्धान्त समझने की गभीर भूल कर बैठते हैं। 111. आचार्य अमितगतिकृत भावनाद्वात्रिशतिका, पद्यानुवाद, छन्द 31. 112. स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 388-89. 113. आचार्य रविषेणकृत पद्मपुराण, पर्व 41 श्लोक 102-05 1
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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