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अनेकान्त 61/1-2-3-4
से .ग्रहण करेंगे तथा इस विषय पर, भविष्य में होने वाले अवांछनीय परिणामों की चिन्तापूर्वक, निष्पक्षता एवं गंभीरता से विचार करेंगे।
सन्दर्भ एवं टिप्पणियाँ : 1. सम्मइसुत्तं (सम्पा० - डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, ज्ञानोदय ग्रन्थ प्रकाशन, नीमच, 1978).
पृ० 150. 2. नियमसार, गा० 18, श्री पद्मप्रभमलधारिदेवकृत टीका सहित। 3. राजवार्तिक, अ० 6. सू० 1, वा० 7 (सम्पा०-अनु० प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, भारतीय
ज्ञानपीठ, पाँचवा सं०. 1999, मूल संस्कृत, पृ० 504, हिन्दीसार, पृ० 705) 4. देखिये : सन्दर्भ 2. 5. Purushartha = any object of human pursuit; any one of the four objects or aims
ofexistence, namely, (i) kama, the gratification of desire; (ii) artha, acquirement of wealth; (iii) dharma, discharge of duty; and (iv) moksha, final emancipation (Sanskrit-English Dictionary, Monier-Williams; Motilal Banarsidass, revised
edn., 2002;p. 637) 6. पुरुषार्थ = मानव जीवन के चार मुख्य अर्थो अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मे से एक
(संस्कृत-हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, द्वि० स०,
1969, पृ० 624) 7. (a) Purushartha = human effort or exertion (Ref. 5. p. 637)
(b) पुरुषार्थ = मानवप्रयत्न या चेष्टा, पुरुषकार (सदर्भ 6. पृ० 624) 8. पौरुषम् = चेष्टा, प्रयत्न (सदर्भ 6, पृ० 637) 9. (a) Purushakara = human effort (opposite to daiva, fate) (Ref. 5. p. 637)
(b) देखिये संदर्भ 7(b) 10. आप्त-मीमांसा : स्वामी समन्तभद्र (आ० वसुनन्दिकृत वृत्ति एवं अकलकदेवविरचित
अष्टशती सहित, भारतीय जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी सस्था, काशी, 1914), पृ० 40. 11. अष्टसहस्री (गाधी नाथारग जैनग्रन्थमाला, बम्बई, 1915), पृ० 256. 12. सन्दर्भ 10. पृ०40. 13. तत्त्वप्रदीपिका टीका. परिशिष्ट के अन्तर्गत 47 नयों द्वारा आत्मद्रव्य का निरूपण, क्रम स० ____32 पर पुरुषकारनयविषयक कथन । 14. "शंका मुक्त जीव के कोई प्रयत्न नही होता, क्योकि मुक्त जीव कृतकृत्य है? समाधान .
वीर्यान्तरायकर्म के क्षय से उत्पन्न, वीर्यलब्धिरूप प्रयत्न मुक्त जीव के होता है। चूंकि मुक्त जीव कृतकृत्य रहते हैं, अतः वे प्रयत्न का कभी उपयोग नहीं करते।" (स्याद्वादमंजरी, रायचन्द्र शास्त्रमाला, बम्बई. 1935, पृ० 89-90) ध्यान देने योग्य है कि यहाँ वैशेषिकमत के शंकाकार को उत्तर देने के लिये श्वेताम्बर रचनाकार मल्लिषेणसूरि ने वीर्यलब्धिरूप 'शक्ति' या सामर्थ्य मे प्रयत्न का उपचार किया है। जिस सन्दर्भ मे यह कथन किया गया है उसे ठीक से समझने के लिये वैशेषिकों का पूर्वपक्ष समझना भी निहायत जरूरी है, देखें, पृ० 65 से 92 तक, पूरा प्रकरण।]