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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 109 साध्य भी परम पुण्यातिशयरूप भाग्य/पूर्वकृत तथा चारित्रविशेषात्मक पुरुषार्थ से ही सम्भव है। 123 कुछ लोग अपने निरूपण में नियति को ही मुख्य करते हैं - पुरुषार्थ को उनके द्वारा 'नियत' कहकर वास्तव में गौण नहीं किया जाता, बल्कि हटा ही दिया जाता है। फलतः उनका निरूपण 'नियति-पुरुषार्थ' की परस्पर सापेक्षता को बनाए रखने वाला अनेकान्त नहीं होता, प्रत्युत 'नियति-नियति' रूप, प्रतिपक्षी नय से निरपेक्ष, एकान्त ही रह जाता है, जो कि स्पष्टतः मिथ्या है - निरपेक्षा नया मिथ्या, ऐसा सिद्धान्तवचन है। उन लोगों को अपने नियतिपरक निरूपण की युक्तियुक्तता ठहराने के लिये, पदार्थ के अस्तित्व में उन पर्यायों के निश्चय से अविद्यमान होते हुए भी, भूत-भविष्यत् पर्यायों की 'क्रमबद्धता' की कल्पना करनी पड़ी है; "विवक्षित निमित्त की स्वतः उपस्थिति" के नवीन नियम को 'आविष्कृत' करना पड़ा है, पुरुषार्थ की आर्ष आचार्यों द्वारा दी गई सम्यक् परिभाषा के स्थान पर एक नई परिभाषा गढ़नी पडी है; तथा आचार्यों के पुरुषार्थप्रधान उपदेशों को “मात्र कहने की पद्धति' बोलकर, उन्हें निरर्थक ठहराने का दुष्प्रयास भी उनके द्वारा किया जा रहा है। उन लोगों से हमारा नम्र निवेदन है . ध्यानपूर्वक विचार करें कि आगे भविष्य में इस प्रकार के निरूपण के कितने गंभीर परिणाम होंगे? भारतीय संस्कृति का इतिहास इस बात का साक्षी है कि "दैवीय-ईश्वरीय कृपा' एवं 'कर्ता-नियन्ता ईश्वर द्वारा रचित-नियन्त्रित नियति' की समर्थक वैदिक / ब्राह्मण परम्परा रही है, जबकि उससे सर्वथा विलक्षण एवं अत्यन्त पुरातन परम्परा यह है जो आदिगुरु, प्रथम तीर्थकर, परमतपस्वी, महाश्रमण, अध्यात्मयोगी भगवान् ऋषभदेव के द्वारा प्रारम्भ की गई थी तथा जिसे 'श्रम' अर्थात् संयम-तपश्चरण-ध्यान-योगरूप पुरुषार्थ की प्रधानता के अनन्य प्रतीक 'श्रमण' विशेषण के द्वारा पुराकाल से जाना गया है। 125 तीर्थंकरों की इस पुरातन परम्परा के, अब नवीन शैली में किये जा रहे उक्त नियतिपरक निरूपण के परिणामस्वरूप, कहीं ऐसा न हो कि यह दिगम्बर समाज 'नियति' की उक्त अवधारणा के अधीन होकर (और, फलस्वरूप, जीव के पुरुषार्थ को नकार कर, व नतीजतन जीव की जिम्मेवारी को भी नकार कर) स्वच्छन्दता का मीठा जहर पीने का आदी हो जाए! ___ लेखक का अभिप्राय यहाँ किसी व्यक्तिविशेष के कथनादिक का खण्डन करने का कदापि नहीं है, बल्किं आगमानुकूल सही रास्ते की ओर इंगित करने मात्र का है। आशा है कि तत्त्वजिज्ञासु, सुधी पाठक इसे इसी निश्छल भावना
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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