SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 108 अनेकान्त 61/ 1-2-3-4 अर्थात् नष्ट हुआ है प्रमाद जिनका और सम्यक् प्रकार से सवरसहित हुआ है अन्तकरण जिनका ऐसे मुनिश्रेष्ठ उत्कृष्ट विशुद्धतासहित तपों से अनुक्रम से गुणश्रेणीनिर्जरा का आश्रय करके, बिना पके कर्मों को भी पका कर स्थिति पूर्ण हुए बिना ही निर्जरा करते हैं । उपर्युक्त साक्ष्यों के अवलोकन के बाद भी जिन लोगो की मान्यता मे कालनियम की मुख्यता जड जमाये हुए है, उन्हे भट्ट अकलकदेव का यह कथन हृदयगम करना चाहिये “भव्यो की कर्मनिर्जरा का कोई काल निश्चित नही है और न समस्त कर्मों की निर्जरापूर्वक मोक्ष का ही कोई कालनियम है। यदि काल ही सबका कारण मान लिया जाए तो बाह्य और आभ्यन्तर कारण–सामग्री का ही लोप हो जाएगा" (राजवार्तिक, अ० 1, सू० 3, वार्तिक 9–10)। यही आशय, प्रवचनसार की टीका मे आचार्य अमृतचन्द्र प्रकट करते है आत्मद्रव्य अकालनय से जिसकी सिद्धि समय पर आधार नहीं रखती, ऐसा है । 122 26. उपसंहार ऊपर की विस्तृत विचारणा के अनुरूप, सन्दर्भविशेष मे नियति की प्रयोजनभूतता को हम स्वीकार करते है। कहने की आवश्यकता नही कि नियति की वह अवधारणा पुरुषार्थ - सापेक्ष ही है, पुरुषार्थ - निरपेक्ष नही, और मोक्षमार्ग मे पुरुषार्थ ही प्रधान है, नियति व कालनियम गौण है । प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका के परिशिष्ट मे आचार्य अमृतचन्द्र ने रवभाव-अस्वभाव, काल - अकाल, दैव - पुरुषार्थ, ईश्वर (पारतन्त्र्य)अनीश्वर (स्वातन्त्र्य) नययुगलो का जो निरूपण किया है, वहाँ उनके द्वारा दिये गए उदाहरणो पर गौर करे तो स्पष्ट समझ मे आता है कि जहाँ 'स्वभाव', 'काल', 'दैव' आदि एक-एक नय अपने-अपने पक्ष (स्वभाव, काल, दैव / अदृष्ट आदि) के महत्त्व को प्रतिपादित करते दीखते है, वही अस्वभावनय, अकालनय, पुरुषार्थनय और अनीश्वरनय, ये सब मात्र एक पुरुषार्थ की प्रधानता को ही दर्शाते है। साराशरूप मे, लेख के प्रारम्भ मे उद्धृत किये गए अमृतचन्द्राचार्य के वचन की पुनरावृत्ति करना उचित एव युक्त ठहरता है पुरुषार्थदृष्टि की मुख्यतापूर्वक आत्मस्वरूप की सिद्धि यत्नसाध्य है। अष्टसहस्री मे दैव एव पुरुषार्थ की चर्चा के अन्तर्गत, श्रीमद् विद्यानन्दि आचार्य कहते हैं मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशयचारित्रविशेषात्मकपौरुषाभ्यामेव सम्भवात् अर्थात् मोक्षरूपी
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy