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________________ अनेकान्त 61/ 1-2-3-4 भी आ जाती है; क्योंकि आत्मतत्त्व की खोज के अभियान की सफलता बहुधा अनेक भवों की साधना की अपेक्षा रखती है (जिस तथ्य को रेखांकित करने के लिये ही प्रथमानुयोग में तीर्थंकरों द्वारा मुख्यतः पिछले दस भवों में की गई साधना की परम्परा का सविस्तार वर्णन किया जाता है) । तत्त्वजिज्ञासुओं को इस विषय में सतर्क रहना ज़रूरी है, क्योंकि 'अपौरुषेय' विशेषण की सन्दर्भ-निरपेक्ष व्याख्या पेश करने के लिये, हमारे नियतिवादी बन्धु (क्षणिकवादी बौद्धों की ही तरह), कार्यकारणभाव - निरपेक्ष ऋजुसूत्रनय के एकान्त का आश्रय लेकर, पुरुषार्थ को तिरस्कृत करने का कोई अवसर नहीं चूकना चाहते। जो भी हो, व्यर्थ के विवाद में न उलझकर, द्रव्यसंग्रह के टीकाकार श्री ब्रह्मदेव के द्रव्यार्थिकनयाश्रित शब्दों का प्रयोग करते हुए, यही निवेदन करना पर्याप्त होगा कि अनेकानेक शास्त्रार्थों में क्षणिकवादी बौद्धों को पराजित करके सम्पूर्ण भारतवर्ष में अनेकान्त - सिद्धान्त की विजय पताका फहराने वाले महान आचार्य अकलंकदेव द्वारा उल्लिखित उक्त 'अपौरुषेय' घटना उसी साधक के घटित होती है "जो निजशुद्धात्माभिमुख परिणाम' नामक विशेष निर्मलभावनारूप खड्ग से पौरुष करके ( मिथ्यात्वरूपी) कर्मशत्रु को हनता है । 119 25. निर्जरा तथा मोक्ष के सन्दर्भ में कालनियम की मुख्यता नहीं 107 रत्नत्रय के धारक, शुद्धोपयोगी मुनिराजों के तपश्चरणरूपी पुरुषार्थ द्वारा कर्मों की निर्जरा कैसे होती है, उसका निरूपण आचार्य पूज्यपाद के शब्दों में : यत्कर्माप्राप्तविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीर्णं बलादुदीर्य उदयावलिं प्रवेश्य वेद्यते आम्रपनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा अर्थात् आम और पनस फल आदि को प्रायोगिक क्रियाविशेष के द्वारा जिस प्रकार अकाल में पका लेते हैं, उसी प्रकार जिन कर्मों का उदयकाल अभी नहीं आया है उन्हें भी तपविशेषरूपी उपक्रम / उपाय से बलपूर्वक उदीरणा द्वारा उदयावलि में लाकर पका देना अविपाक निर्जरा है । 120 ऐसे ही आशय का कथन भगवती आराधना, राजवार्तिक, तत्त्वार्थसार, नयचक्र आदि अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। आचार्य शुभचन्द्र भी ज्ञानार्णव में इसी आशय के वचन कहते हैं : अपक्वपाकः क्रियतेऽस्ततन्द्रैस्तपोभिरुग्रैर्वरशुद्धियुक्तैः । क्रमाद्गुणश्रेणिसमाश्रयेण सुसंवृतान्तःकरणैर्मुनीन्द्रः ।। 21
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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