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________________ 106 अनेकान्त 61/1-2-3-4 'अपौरुषेय' कहा है चेतनस्य द्रव्यस्यौपशमिकादि वः कर्मोपशमाद्यपेक्षोऽपौरुषेयत्वात् ... अर्थात् चेतन द्रव्य के औपशमिक आदि भाव, कर्मो के उपशम आदि की अपेक्षा होकर भी, अपौरुषेय होने से ... (राजवार्तिक, 5/22/10)। यदि सस्कारो की भाषा मे कहे साधक नही जानता कि साधना द्वारा उत्पन्न किये गए ज्ञानसस्कारो की तीव्रता कब पूर्वसचित अविद्यामय सस्कारो को उखाड फेकने में समर्थ होगी। या करणानुयोग की भाषा मे कहे, तो सत्ता मे पहले से पड़ा हुआ मिथ्यात्वकर्म, तत्त्वज्ञानाभ्यास के बल से ढीला पडकर कब नष्ट होगा। इसलिये साधक का कर्तव्य तो तत्त्वाभ्यासरूप पुरुषार्थ मे तीव्ररुचिपूर्वक लगे रहना ही है। दर्शनमोहनीय के निरसन का क्षण हम छद्मस्थो के लिये चूंकि अज्ञात/अनिश्चित है, इसलिये जब भी वह घटित होता है उसे 'लब्धि' द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। इस प्रकार, 'काललब्धि' का भावार्थ है : जो साधक की अतीव जिज्ञासा के केन्द्र पर प्रतिष्ठित था, साधक के प्राण जिसके लिये तडपते थे, साधक के समूचे अस्तित्व को जिससे मिलने की प्रतीक्षा थी, ऐसे उस निजात्मतत्त्व से मिलन के क्षण की प्राप्ति। जाहिर है कि असली महत्त्व तो वहॉ आत्मतत्त्वलब्धि का है, जिसे उपचार से 'उस क्षण की लब्धि' के रूप मे अभिव्यक्ति दी गई है। उप-अनुच्छेद 2.24 के अन्तर्गत चर्चा मे दिये गए उद्धरणो (सन्दर्भ 37-39) का ध्यान से पुनरावलोकन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है। ___"जीव के औपशमिकादि भाव, कर्मो के उपशमादि की अपेक्षा होकर भी, 'अपौरुषेय' होते है," भट्ट अकलकदेव का यह कथन ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से किया गया है, क्योकि जब (प्रथम) उपशम घटित होता है, तब - पूर्व मे तत्त्वाभ्यासरूपी पुरुषार्थ की प्रगाढता के द्वारा जो उत्पन्न किये गए थे, किन्तु अब जो अबुद्धयात्मक चेतनपरिणामो के रूप मे सचित हैं, ऐसे वे (पूर्वपुरुषार्थजनित) ज्ञानसस्कार यद्यपि अपना कार्य कर रहे होते है,117क तथापि - साधक की बुद्धिपूर्वक चेष्टा विलय हो चुकी होती है।ख पुनश्च, ऋजुसूत्रदृष्टि मे कार्यकारणभाव ही नही बनता। वर्तमानकालग्राही ऋजुसूत्र, एक पर्यायार्थिक नय है, और कार्यकारणभाव उसके प्रतिपक्षी (अनेक पर्यायो मे अन्वयात्मक भाव को विषय करने वाले) द्रव्यार्थिकनय का विषय है, जैसा कि स्वय अकलकदेव राजवार्तिक मे प्रतिपादित करते हैं।118 ऊपर के उद्धरण मे आचार्यश्री द्वारा प्रयुक्त ऋजुसूत्रनय, स्वाभाविक रूप से अपने प्रतिपक्षी द्रव्यार्थिकनय की सापेक्षता रखता है जिसके कि विषयक्षेत्र मे कारणकार्यभाव की सुदीर्घ परम्परा
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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