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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 105 करने मे सर्वथा असफल है, और रहेगा। ध्यान देने योग्य है कि प्रकृत गाथा अविरत सम्यग्दृष्टि के पूरे प्रकरण का उपसहार करने के क्रम मे इस स्थल पर प्राप्त है – यह मात्र एक सयोग है कि इसके पहले की कुछ गाथाए वर्तमान समय मे विवादवश बहुचर्चित रही है। 24. काललब्धि : सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के सन्दर्भ में ऊपर, लेख के प्रारम्भ मे (उप-अनुच्छेद 2.22 के अन्तर्गत) सस्कारो पर चर्चा कर आए है। इन सस्कारो की एक विशेषता यह है कि बुद्धि के द्वारा उत्पन्न एट पुष्ट किये जाते हुए भी, पुन पुन प्रवृत्तिरूप अभ्यास से ये इतने दृढ हो जाते है कि अबुद्धिगम्य चेतना मे भी प्रवेश कर जाते है, यही कारण है कि अनादि से शरीर के साथ एकानुभवन करते आ रहे इस जीव को बुद्धिपूर्वक ऐसा विकल्प नही उठाना पडता कि "मै शरीर हूँ, वह एकानुभवन अबुद्धिपूर्वक चलता ही रहता है। इन अविद्यात्मक सस्कारो का निरसन किया जाना तभी सम्भव है, जब स्व-पर भेदविज्ञान की भावना को साधक इतनी रुचिपूर्वक, इतनी प्रगाढता से भाये कि तज्जनित ज्ञानात्मक सस्कार, अबुद्धिगम्य चेतना मे पहले से ही आधिपत्य जमाए बैठे अविद्यात्मक सस्कारो से भी ज्यादा गहराई तक प्रवेश कर जाए और उन्हे उखाड फेके (अथवा, करणानुयोग की भाषा मे कहे तो, साधक के ऐसे शुद्धात्मभावनारूप पुरुषार्थ की परिणतिस्वरूप दर्शनमोहनीय का उपशमादि घटित हो)। साधना की प्रगाढता की ऐसी चरम परिणति के लिये ही आचार्य पूज्यपाद ने समाधिशतक मे कहा है ज्ञानसंस्कारैः स्वतः तत्त्वे अवतिष्ठते अर्थात् आत्म-देह के भेदविज्ञानरूप तीव्र सस्कारो के द्वारा मन स्वय ही आत्मस्वरूप को प्राप्त हो जाता है (श्लोक 37, उत्तरार्द्ध)। जिस साधक के ऐसा घटित होता है वह बुद्धि के स्तर पर पहले ही यह निर्णय कर चुका होता है कि समस्त विकल्प - चाहे वे बुद्धिपूर्वक हो या अबुद्धिपूर्वक - आकुलतामय है, विभाव है, मेरे शुद्धात्मस्वभाव से बहिर्भूत है, अत कर्मबन्ध के कारण है, हेय है, दुखरूप है, तथा, इनके विपरीत, मेरा निर्विकल्पक ज्ञायकस्वभाव अनाकुलतामय है, आदेय है, ग्रहण करने योग्य है। इसलिये शुद्धात्मभावनारूपी पुरुषार्थ द्वारा वह स्वरूप-सम्मुख होने का प्रयत्न करता है जिससे कि बुद्धिपूर्वक विकल्प विलीन होकर आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो। आत्मतत्त्व के प्रति तीव्ररुचि के संस्कारों के फलस्वरूप, 'अनिवृत्तिकरण' परिणामो के अनन्तर जब ऐसा घटित होता है, वह क्षण साधक के चुनाव के बाहर है, चूंकि वहाँ विकल्पात्मक बुद्धि अपने निर्विकल्पक स्रोत, आत्मस्वभाव के सम्मुख समर्पित होकर विलीन हो चुकी होती है। आचार्यों ने इस घटना को
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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