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________________ 104 अनेकान्त 61/1-2-3-4 वैज्ञानिक विश्लेषण और तन्मूलक कार्यकारणभाव की परम्परा का ही कार्य है; उसी के बल पर पदार्थ के वास्तविक स्वरूप का निर्णय किया जा सकता है।16 23. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 323 का सम्यग् अभिप्राय स्वामी कुमार की कृति में संख्या 323 पर है, यह गाथा : __एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्व-पज्जाए। सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुदिट्ठी।। 323 ।। सर्वप्रथम इसका सन्दर्भ समझना उचित होगा। जैसा कि पहले भी कह आए हैं, ये गाथाएं 'धर्मानुप्रेक्षा' प्रकरण के अन्तर्गत आई हैं। वहाँ पहले 'धर्म के मूल' सर्वज्ञदेव का स्वरूप, फिर श्रावक व मुनि के लिये सर्वोक्त धर्म के भेद, तदनन्तर श्रावकधर्म के चौथे-पांचवें गुणस्थानसम्बन्धी बारह भेद बतलाकर, सम्यक्त्वोत्पत्ति के लिये जरूरी योग्यता का निर्देश करके, फिर उपशमादि सम्यक्त्व का लक्षण, और सम्यक्त्व-देशव्रतादि के ग्रहण करने/छोडने की संख्या बताई है। तदनन्तर सात गाथाओ (311-17) द्वारा सम्यग्दृष्टि के तत्त्वश्रद्धान का स्वरूप निरूपित करके, परिणामों की सँभाल में उपयोगी (पिछले अनुच्छेद में चर्चित की जा चुकीं) चार गाथाएं कही हैं। तब, अविरत सम्यग्दृष्टि के निरूपण को पूरा करने के करीब होने पर, आचार्यश्री ने ऊपर की गाथा 323 कही है जिसका भावार्थ है कि : द्रव्य-गुण-पर्याय, जीव-पुद्गलादि छह द्रव्य, जीवादि सप्ततत्त्व- नवपदार्थ, उपादान/निमित्त कारण-कार्यादि, इन सबका जो-जो सर्वज्ञोक्त स्वरूप स्वामी कुमार ने लोकानुप्रेक्षा आदि विभिन्न अनुप्रेक्षाओं के विस्तृत निरूपण के दौरान, इस स्थल तक प्रतिपादित किया है - (एवं जो णिच्छयदो) तदनुसार जो निश्चय करके (जाणदि दव्वाणि सव्व-पज्जाए) उन सब द्रव्यगुण-पर्यायादिक, एवं उपलक्षण से प्रसंग को प्राप्त, सप्ततत्त्व-नवपदार्थादिक को जानता है, (सो सद्दिट्ठी सुद्धो) वह स्पष्टतः शुद्ध सम्यग्दृष्टि है, और (जो संकदि सो हु कुदिट्ठी) जो उन द्रव्य-गुण-पर्यायादिक व सप्ततत्त्वादिक के अस्तित्व में, उनके सम्यक स्वरूप में शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है। __ अपने निहित अभिप्राय (vested intent) के वश, कुछ लोग इस गाथा को गा० 321-22 के साथ बलात् जोड़कर इसका मनमाना अर्थ निकालना चाहते हैं, परन्तु प्रस्तुत लेख में किये गए विस्तृत, आगमानुसारी एवं निष्पक्ष विश्लेषण से सुस्पष्ट है कि उनका ऐसा प्रयास आगम-सम्मत मान्यताओं को झूठा साबित
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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