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अनेकान्त 61/1-2-3-4
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भाव-विह्वल होकर रोने लगा, तब उन अवधिज्ञानी मुनिराज ने प्रयोजनवश नियतिपरक कथन की मुख्यता का आश्रय लेकर उस सद्दृष्टि गृध्रपक्षी को सम्बोधित करके उसको धीरज बँधाया, उसका स्थितिकरण किया।113 ___ इस प्रकार, नियति की मुख्यता का प्रतिपादन करने वाले कथन की यदि कोई आगम-सम्मत भूमिका, कोई रोल (role) साधक के जीवन में बनता है, तो वह उसके परिणामों की संभाल के लिये अवलम्ब के रूप में ही बनता है। यहाँ कोई शका करता है नियति जब एक उपचरित हेतु है तो वह किसी के परिणामो की सभाल मे अवलम्ब कैसे हो सकती है? इसका उत्तर इस प्रकार है मालूम देता है कि शकाकार ने ‘उपचार' के प्रयोजन का मर्म नही समझा। जिस प्रकार, जिनेन्द्रदेव के समान नासाग्रदृष्टि एव स्वरूपलीन मुद्रा वाली पाषाण आदि की प्रतिमा मे उनका प्रयोजनवश आरोपण करना तदाकार स्थापना है, यद्यपि ऐसी स्थापना परमार्थत उपचार है, तथापि यह जीव उस प्रतिमा या ‘स्थापनाजिनेन्द्र के अवलम्बन से परमस्वरूपलीन 'भावजिनेन्द्र' के 'दर्शन' करके, तदनन्तर उस जिनदर्शन को माध्यम बनाकर (अर्हन्त के द्रव्य-गुण-पर्याय का अपने द्रव्य-गुण-पर्याय से मिलान करते हुए)114 निजदर्शन को भी प्राप्त कर सकता है, यही कारण है कि जिनबिम्बदर्शन को सम्यग्दर्शन का एक मुख्य निमित्त बतलाया गया है। इसी प्रकार, केवलज्ञान-सापेक्ष निश्चितपने को ज्ञेयपदार्थो-परिस्थितियों में आरोपित करके, और उन पदार्थों-परिस्थितियो के (जिनसे यह जीव रागवश जुड रहा था) 'निश्चितपने' को प्रयोजनवश मुख्य करके, तदनन्तर उसके अवलम्बन से केवलज्ञान का श्रद्धालु यह जीव यदि भावनारूप पुरुषार्थ करे तो अपने परिणामो की सभॉल कर सकता है (यद्यपि 'पराश्रित निश्चितता' का यह आरोपण, ऊपर के उदाहरण की भॉति, परमार्थत उपचार ही रहेगा)। ज्ञातव्य है कि मोक्षमार्ग मे इस जीव के उपादान की ही मुख्यता है, तथापि निचली भूमिकाओ मे उसे अवलम्बनो की जरूरत भी अवश्य ही पड़ती है।
इस चर्चा से स्पष्ट है कि 'नियति एक भावना है, और अनित्य, अशरणादिक अन्यान्य भावनाओ की तरह ही एकनयावलम्बी है15 (जबकि वस्तुरवरूप अनेकान्तात्मक है)। भावनायें चित्त के समाधान के लिये भायी जाती हैं और उनसे वह प्रयोजन सिद्ध भी होता है; परन्तु तत्त्वव्यवस्था के क्षेत्र में भावना का उपयोग नहीं है। वहाँ तो