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________________ 102 अनेकान्त 61/1-2-3-4 ध्यान देने योग्य है कि आचार्यश्री ने ऐसा तो नही कहा कि "हे साधक। केवली भगवान् के ज्ञान में 'जो तेरे चित्त मे अशुभ विकल्प होने' झलके हैं, सो तो होंगे ही," प्रत्युत आचार्यश्री ने तो उक्त गाथाचतुष्क द्वारा निचली भूमिका में स्थित साधक को भी अपने परिणामों की सभाँल करने के हेतु, विचारणा/चिन्तवन/भावना/अनुप्रेक्षारूपी पुरुषार्थ करने की ही प्रेरणा दी है। स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा का उपर्युक्त गाथाचतुष्क तो सभी के लिये जाना-पहचाना है, इस स्थल से आगे जाकर भी, देशविरति की ग्यारह प्रतिमाओ के निरूपण के अन्तर्गत, दसवी अनुमतिविरत प्रतिमा का कथन करते हुए, स्वामी कुमार कहते है "जो श्रावक 'जो होना है वह होगा ही ऐसा विचार कर पाप के मूल गार्हस्थिक कार्यो की अनुमोदना नही करता, वह अनुमोदनाविरति प्रतिमा का धारक है।"112 यहाँ भी आचार्यश्री ने यही दर्शाया है कि प्रयोजनवश नियतिपरक विचारणा का अवलम्ब लेकर, अशुभकार्यविषयक रागद्वेषात्मक विकल्पों से स्वयं को बचा कर, प्रतिज्ञापूर्वक ग्रहण किये गए व्रतों में अपने को दृढ रखने का पुरुषार्थ साधक किस प्रकार कर सकता है। इसी प्रकार, मोक्षपाहुड की गाथा 86 के भावार्थ मे पण्डितप्रवर जयचन्दजी छाबडा लिखते है "श्रावक पहले तो निरतिचार, निश्चल सम्यक्त्व को ग्रहण करके उसका ध्यान करे। सम्यक्त्व की इस भावना से गृहस्थ के जो गृहकार्यसम्बन्धी आकुलता, क्षोभ, दुख होता है वह मिट जाता है, कार्य के बिगडने-सुधरने में वस्तु के स्वरूप का विचार आवे तब दुःख मिटता है। सम्यग्दृष्टि के ऐसा विचार होता है कि वस्तु का स्वरूप सर्वज्ञ ने जैसा जाना है वैसा निरन्तर परिणमता है, वही होता है, इष्ट-अनिष्ट मानकर दुःखी-सुखी होना निष्फल है। ऐसे विचार से दुःख मिटता है, यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है, इसीलिये सम्यक्त्व का ध्यान करना कहा है।" उपर्युक्त के अलावा एक और उदाहरण, पद्मपुराण मे वर्णित जटायु नामक गिद्ध पक्षी के आख्यान का, स्मृतिपटल पर आता है। दण्डकवन मे राम-सीता के द्वारा जिन्हे आहारदान दिया गया था, उन चारणऋद्धिधारी मुनिद्वय को देखकर उस पक्षी को अपने पूर्वभवो का स्मरण हो आया कि सुदूर अतीत में 'दण्डक' नामक अतिक्रूर राजा की पर्याय मे उसने वीतरागी मुनियो पर कैसे अत्याचार किये थे। जातिस्मरण के उपरान्त स्वय को बार-बार धिक्कारता हुआ, तदनन्तर सुदृष्टि को प्राप्त हुआ वह पक्षी जब अत्यत
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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