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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 111 15. सिद्धिविनिश्चय, 1-6, स्वोपज्ञवृत्ति (सम्पा० डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य, भारतीय ___ज्ञानपीठ, काशी, 1959), पृ० 34. 16. वही, 1-8, आचार्य अनन्तवीर्यकृत टीका, पृ० 36. 17. प्रमेयकमलमार्तण्ड, 3-3 (निर्णयसागर मुद्रणालय, बम्बई, 1941), पृ० 334. 18. वही, 4-6, पृ० 490. 19. (क) ऐसा ही आशय आचार्य वीरसेन ने व्यक्त किया है "अवाय ज्ञान से जाने हुए पदार्थ मे कालान्तर मे अविस्मरण के कारणभूत सस्कार को उत्पन्न करने वाला जो निर्णयरूप ज्ञान होता है उसे धारणा ज्ञान कहते हैं। (जयधवला-समन्वित कसायपाहुड, भाग 1, द्वि० स० पृ० 307) (ख) यह भी देखिये "इदमेव हि सस्कारस्य लक्षण यत्कालान्तरेऽप्यविस्मरणमिति।" (लघीयस्त्रय, कारिका 5. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति, लघीयस्त्रयादिसग्रह', माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला, 1915, पृ० 15) 20. समाधिशतक (प्रभाचन्द्राचार्यकृत टीका सहित), श्लोक 7, 8, 10, 12, और श्लोक 37 का पूर्वार्द्ध। 21. प्रवचनसार, गा० 184 (कुव्व सभावमादा ). जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति। यह भी देखिये 'प्रकृति, शील और स्वभाव, ये तीनो शब्द एकार्थक है। रागादिक रूप परिणमन आत्मा का स्वभाव है।" (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा 2, जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका)। 22. प्रवचनसार गा० 116 तत्त्वप्रदीपिका टीका । (आचार्य कुन्दकुन्द की मूल गाथा का भावार्थ भी द्रष्टव्य है।) 23. धवला 1 9-1 23, पु०6 पृ० 41. 24. विणएण सुदमधीद किह वि पमादेण होदि विस्सरिद । तमुवट्ठादि परभवे ।" (धवला 4 1, 18, पु० 9, पृ० 82 पर उद्धृत) 25. लब्धिसार गा० 6, सस्कृत वृत्ति (सम्पा० सिद्धान्ताचार्य प० फूलचन्दजी शास्त्री, श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डल, अगास, तृतीयावृत्ति, 1992), पृ० 5. 26. द्रव्यसग्रह, गाथा 38, ब्रह्मदेव-विरचित सस्कृत टीका। 27. ज्ञानजो ज्ञानहेतुश्च सस्कार ।" (सिद्धिविनिश्चय, 4-26. टीका मे उद्धृत, सन्दर्भ 15, पृ० 566) 28. साधन द्विविध अभ्यन्तर बाह्य च।" (सर्वार्थसिद्धि. 1/7) 29. देखिय (क) सन्दर्भ 10. पृ० 40, (ख) सदर्भ 11, पृ० 256. 30. आप्तमीमासा, तत्त्वदीपिका व्याख्या, प्रो० उदयचन्द्र जैन (श्री गणेश वर्णी दि० जैन सस्थान, 1975), पृ० 287. 31. देखिये . प० टोडरमलजीकृत मोक्षमार्गप्रकाशक (सम्पादन · प० परमानन्द शास्त्री, सस्ती ___ ग्रन्थमाला, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, 1950), दूसरा अधिकार, पृ० 56-57, तीसरा अधिकार, पृ० 80. 32. "तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृश । सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता।।" अर्थ जैसा भाग्य होता है वैसी ही बुद्धि हो जाती है, प्रयत्न भी वैसा ही होता है, और उसी के अनुसार सहायक भी मिल जाते हैं।
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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