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अनेकान्त 60/1-2
द्वारा हुआ करता है, नेत्रों द्वारा नहीं।
शंका-“रूप या रसादि वस्तु के अंश या धर्म है" इस प्रकार का ज्ञान यदि अनुमान द्वारा होता है तो अनुमान भी तो मतिज्ञान का एक भेद है इसलिये अनुमान रूप मतिज्ञान वस्तु के अंश का ग्राहक होने के सबब प्रमाण कोटि में नहीं गिना जाकर नयकोटि में गिना जाना चाहिये, ऐसी हालत में मतिज्ञान को प्रमाण मानने के बारे में पूर्वोक्त आपत्ति जैसी की तैसी बनी रहती है। __समाधान-नेत्रों द्वारा हमें रूपमुखेन वस्तु का ज्ञान हो जाने पर उन दोनों में रहने वाले अवयवावयवीभाव सम्बन्ध का ज्ञान अनुमान द्वारा हुआ करता है यह संबन्ध वस्तु का अवयव नहीं, बल्कि स्वतंत्र ज्ञान का विषयभूत स्वतंत्र पदार्थ है इसलिये यह अनुमानज्ञान भी वस्तु के अंश को न ग्रहण करके स्वतंत्र वस्तु को ही ग्रहण करता है अर्थात् इस ज्ञान का विषय रूप और उसका आधार वस्तु दोनों से स्वतंत्र है; कारण कि रूप और उसका आधारभूत वस्तु का ज्ञान तो हमें नेत्रों द्वारा पहिले ही हो जाता है सिर्फ उन दोनों के संबन्धका ज्ञान जो नेत्रों द्वारा नहीं होता है वह अनुमान द्वारा किया जाता है। इसी प्रकार 'रूप या रसादि वस्तुके अंश या धर्म हैं' इस प्रकार के वाक्य को सुन कर जो हमें शब्दार्थ ज्ञानरूप श्रुतज्ञान द्वारा ‘रूप या रसादि वस्तु के अंश हैं' इस प्रकार का अवयवावयवी भावसंबन्ध ज्ञान हुआ करता है। वह भी प्रमाण रूप ही समझना चाहिये, नयरूप नहीं। इस विषय को आगे और भी स्पष्ट किया जायेगा।
शंका- गोम्मटसार जीवकांड में बतलाये गये श्रुतज्ञान के 'अर्थ से अर्थान्तर' का ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता20 है इस लक्षण में अनुमानका भी समावेश हो जाता है, इसलिये श्रुतज्ञान से भिन्न अनुमान प्रमाण को मानने की आवश्यकता नहीं है।
समाधान - हम पहिले बतला आये हैं कि शब्द श्रवणपूर्वक हमें जो