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अनेकान्त 60/1-2
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मानने में भी यही आपत्ति उपस्थित होती है।
समाधान-नेत्रों से हमें वस्तु के अंशभूत रूप का ज्ञान नहीं होता है बल्कि रूपमुखेन वस्तु का ही ज्ञान होता है। वस्तु चूंकि रूप, रस आदि धर्मों को छोड़ कर कोई स्वतंत्र स्वरूप वाली नहीं है इसलिये वस्तु स्वरूप सभी धर्मो का हमें रूपमुखेन ज्ञान हो जाया करता है-ऐसा समझना चाहिये। दूसरी बात यह है कि यदि हमें नेत्रों द्वारा सिर्फ वस्तु के अंश या धर्मस्वरूप रूप का ही ज्ञाना है तो उस के फलस्वरूप होने वाली हमारी ग्रहण, त्याग और माध्यवरूप प्रवृत्ति सिर्फ वस्तु के अंश भूत रूप में होना चाहिये रूप विशिष्ट वस्तु में नहीं, लेकिन नेत्रों द्वारा ज्ञान होने पर होने वाली हमारी उल्लिखित प्रवृत्ति रूप विशिष्ट वस्तु में ही हुआ करती है इसलिये यही मानना ठीक है कि हमें नेत्रों द्वारा रूपमुखेन सभी धर्मो की पिंडस्वरूप वस्तु का ही ज्ञान हुआ करता है केवल वस्तु के अंशभूत रूप का नहीं। यही प्रक्रिया दूसरे ऐन्द्रियिक ज्ञानों में भी समझना चाहिये।
शंका-यदि हमें नेत्रों द्वारा रूपमुखेन समस्त धर्मो की पिंडस्वरूप वस्तु का ज्ञान हुआ करता है तो “रूप वस्तु का एक अंश है" ऐसा अनुभव हमें नहीं होना चाहिये, लेकिन होता जरूर है इसलिये यही मानना ठीक है कि नेत्रों से हमें वस्तु के रूप का ही ज्ञान होता है समस्त धर्मो की पिंडस्वरूप वस्तु का नहीं।
समाधान-“रूप अथवा रस आदि वस्तु के अंश या धर्म है" इस प्रकार का ज्ञान हमें नेत्र, रखना आदि इन्द्रियों द्वारा वस्तु का रूप विशिष्ट, रसविशिष्टादि भिन्न-भिन्न तरह का ज्ञान होने के बाद “नेत्रों द्वारा हमें वस्तु का रूपमुखेन ज्ञान होता है रसादिमुखेन नहीं," “रसना के द्वारा हमें वस्तु का रसमुखेन ज्ञान होता है रूपादिमुखेन नहीं" इस प्रकार के अन्वय व्यतिरेक का ज्ञान होने पर अनुमानज्ञान द्वारा हुआ करता है अथवा दूसरे व्यक्यिों द्वारा दिये गये “रूप वस्तु का अंश या धर्म है" इस प्रकार के उपदेश से होने वाले शब्दार्थज्ञान रूप श्रुतज्ञान