SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 94 अनेकांन्त 60/1-2 अध्याय ग्रन्थ के अवयव रहेंगे तव तक नयवाक्य कहलावेंगे और यदि उन्हें अपने-अपने विषय का प्रतिपादन करने वाले स्वतंत्र-ग्रन्थ से पृथक्-मान लिये जायँ तो उस हालत में ये दशों अध्याय अलग-अलग प्रमाणवाक्य कहलाने लगेंगे। ज्ञान अपने आप में एक अखंड वस्तु है, इसलिये ज्ञानरूप स्वार्थप्रमाण में नय का विभाग संभव नहीं है। यही सबब है कि गतिज्ञान, ‘नधिज्ञान, मनःपर्यज्ञान और केवलज्ञान इन चारों ज्ञानों को प्रमाणन हा माना गया है-नयरूप नहीं। लेकिन स्वार्थप्रमाणभूत श्रुतज्ञान में चूंकि वाक्य और महावाक्यरूप परार्थप्रमाण को कारण माना गया है। इसलिये पदार्थप्रमाण में वतलाई गयी नय व्यवस्था की अपेक्षा स्वार्थश्रुत प्रमाणरूप श्रुतज्ञान में भी नय-परिकल्पना संभव है। अतः विवक्षित पदार्थ के अंश का प्रतिपादन करने वाले, वाक्य और महावाक्य के अवयव स्वरूप पद, वाक्य और महावाक्य द्वारा श्रोता को जो अर्थ के अंश का ज्ञान होता है वही नय कहलायेगा। इस तरह पदार्थश्रुत के समान स्वार्थश्रुत को भी प्रमाण और नय के भेद से दो प्रकार का समझना चाहिये। 4. प्रमाण-नयविषयक शंका-समाधान शंका-अनेक धर्मो की पिंड स्वरूप वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण माना गया है लेकिन इन्द्रियों से होने वाला मतिज्ञानरूप पदार्थज्ञान अनेक धर्मो की पिंड स्वरूप वस्तु का ग्राहक नहीं होता है-नेत्रों से हमें रूपविशिष्ट ही वस्तु का ज्ञान होता है उस वस्तु में रहने वाले रसादि धर्म इस ज्ञान के विषय नहीं होते है। इसलिये प्रमाण का उल्लिखित लक्षण मतिज्ञान में घटित न होने के कारण मतिज्ञान को प्रमाण नहीं माना जा सकता है बल्कि वस्तु के एक अंश को विषय करने वाले नय का लक्षण घटित होने के कारण इसको नय मानना ही ठीक है। इसी प्रकार दूसरी रसना आदि इन्द्रियों द्वारा होने वाले रसादि ज्ञानों को प्रमाण
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy