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________________ अनेकान्त 60/1-2 अर्थज्ञान होता है वह श्रुत कहलाता है, अनुमान से जो अर्थज्ञान हमें हुआ करता है उसमें शब्द श्रवण को नियमित कारण नहीं माना गया है। पर्वत में धुआं को देख कर जो हमें अग्नि का ज्ञान हो जाया करता है। वह बिना शब्दों के सुने ही हो जाया करता है। दूसरी बात यह है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञान-पूर्वक होता है। इसका अर्थ यह कि वक्ता के मुख से निकले हुए वचनों को सुन कर श्रोता पहिले वचन और अर्थ में विद्यमान वाच्य-वाचक संबन्धका ज्ञान अनुमान द्वारा करता है तब कहीं जाकर शब्द से श्रोताको अर्थज्ञान होता है यदि श्रोताको 'इस शब्द का यह अर्थ है।' इस प्रकार के वाच्यवाचक संबन्धका ज्ञान नहीं होगा तो उसे शब्दों के अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिये अनुमान पूर्वक श्रुतज्ञान होता है- ऐसा मानना ठीक है, अनुमान और श्रुतज्ञान को एक मानना ठीक नहीं। गोम्मटसार जीवकांड में जो श्रुतज्ञान का लक्षण बतलाने वाली गाथा है उसमें के दो पद महत्त्वपूर्ण है। "अभिणिवोहियपव्वं" और "सहजं"। इनमें से पहिला पद हमें यह बतलाया है कि श्रुतज्ञान अनुमानज्ञानपूर्वक हुआ करता है। कारण कि अनुमान ज्ञान का ही अपर नाम अभिबोधिक ज्ञान है। दूसरा पद हमें यह बतलाता है कि चूंकि इसमें शब्द कारण23 पड़ता है इसलिये इसे श्रुतज्ञान कहते हैं। इस पर विशेष विचार स्वतंत्र लेख द्वारा ही किया जा सकता है। शंका- परार्थश्रुत में पद, वाक्य और महावाक्य का भेद करके जो वाक्य और महावाक्य को प्रमाण तथा इनके अवयवभूत पद, वाक्य और महावाक्य को नय स्वीकार किया गया है। प्रमाण और नय की यह व्यवस्था "पानी लाओ" इत्यादि लौकिक वाक्यों व महावाक्यों में भले ही. संघटित कर दी जावे लेकिन इसका लोक-व्यवहार में कोई खास प्रयोजन नहीं माना जा सकता है। साथ ही वस्तु के स्वरूप-निर्णय में यह व्यवस्था घातक हो सकती है। जैसे वक्ता के समूचे अभिप्रायको प्रकट करने वाला वाक्य यदि प्रमाण मान लिया जाय तो बौद्धों का “वस्तु क्षणिक है" यह
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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