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अनेकान्त 60/1-2
भक्तप्रत्याख्यान के अयोग्य है, तो भी इस समय यदि में भक्तप्रत्याख्यान न करूँ और आगे कदाचित् निर्यापकाचार्य न मिले तो मैं पण्डितमरण की आराधना नहीं कर सकूँगा' ऐसा जिस मुनि को भय हो तो वह मुनि भक्त प्रत्याख्यान के योग्य है।
सल्लेखना की अवधि
भगवती आराधना में भक्तप्रत्याख्यान की उत्कृष्ट अवधि का कथन करते हुए कहा गया है
'उक्कस्सएण भत्तपइण्णकालो जिणेहिं णिद्दिट्ठो।
कालम्मि संपहुत्ते बारसवरिसाणि पुण्णाणि ।।15 अर्थात यदि आयु का काल अधिक शेष हो तो जिनेन्द्र भगवान ने उत्कृष्ट रूप से भक्तप्रत्याख्यान का काल बारह वर्ष का कहा है।
बारह वर्ष प्रमाण कायसल्लेखना के क्रम का विवेचन करते हुए कहा गया है कि वह नाना प्रकार के कायक्लेशों के द्वारा चार वर्ष बिताता है। दूध आदि रसों को त्यागकर फिर भी चार वर्ष तक शरीर को सुखाता है। आचाम्ल और निर्विकृति द्वारा दो वर्ष बिताता है। फिर आचाम्ल के द्वारा एक वर्ष बिताता है। शेष एक वर्ष के छः माह मध्यम तप के द्वारा तथा छः माह उत्कृष्ट तप के द्वारा बिताता है। आहार, क्षेत्र, काल और अपनी शारीरिक प्रकृति को विचार कर इस प्रकार तप करना चाहिए, जिस प्रकार वात, पित्त एवं कफ क्षोभ को प्राप्त न हों।
धवला में भक्तप्रत्याख्यान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट काल बारह वर्ष तथा मध्यम काल इन दोनों का अन्तरालवर्ती कहा गया है। चारित्रसार में भी सल्लेखना के काल का इसी प्रकार कथन है।
सल्लेखना का साधक
मुनि और श्रावक दोनों ही सल्लेखना की साधना के अधिकारी हैं।