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अनेकान्त 60/1-2
भक्तप्रत्याख्यान आदि त्रिविध पण्डितमरण मुनियों के ही होते हैं- यह बात भगवती आराधना की निम्नलिखित गाथा से स्पष्ट है
'पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव।
तिविहं पंडितमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स ।।20 अर्थात् पादोपगमन मरण, भक्तप्रतिज्ञा मरण और इंगिनीमरण ये तीन पण्डितमरण हैं। ये तीनों शास्त्रोक्त चारित्र पालन करने वाले साधु के होते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों के धारक श्रावक को मारणान्तिकी सल्लेखना का आराधक कहा गया है। जब कोई अव्रती श्रावक व्रती होकर जीवन को बिताना चाहता है तो उसे जिस प्रकार बारह व्रतों का पालन करना आवश्यक होता है उसी प्रकार जब व्रती श्रावक मरण के समय धर्मध्यान में लीन रहना चाहता है तो उसे सल्लेखना की आराधना आवश्यक हो जाती है। यद्यपि तत्त्वार्थ सत्र में सल्लेखना का कथन श्रावक धर्म के प्रसंग में हुआ है, किन्तु यह मुनि और श्रावक दोनों के लिए निःश्रेयस् का साधन है। राजवार्तिक में तो स्पष्ट रूप से कह दिया गया है___ 'अयं सल्लेखना विधिः न श्रावकस्यैव दिग्विरत्यादिशीलवतः। किं तर्हि संयतस्यापीति अविशेष ज्ञापनार्थत्वाद् वा पृथगुपदेशः कृतः ।22 अर्थात् यह सल्लेखना विधि शीलव्रत धारी श्रावक की ही नहीं है, किन्तु महाव्रती साधु के भी होती है। इस नियम की सूचना पृथक् सूत्र बनाने से मिल जाती है।
पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में कहा गया है कि 'मैं मरणकाल में अवश्य समाधिमरण करूँगा' श्रावक को ऐसी भावना नित्य भाना चाहिए।23 __पं. गोविन्दकृत पुरुषार्थानुशासन में तो अव्रती श्रावक को भी सल्लेखना का पात्र माना गया है। वे लिखते हैं कि यदि अव्रती पुरुष भी समाधिकरण करता है तो उसे सुगति की प्राप्ति होती है तथा यदि ती श्रावक भी असमाधि में मरण करता है तो उसे दुर्गति की प्राप्ति