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________________ अनेकान्त 60/1-2 सल्लेखना धारण करते हुए कुटुम्ब, मित्र आदि से स्नेह दूर कर, शत्रुओं से बैरभाव हटाकर, बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रह का त्यागकर, शुद्ध मन वाला होकर, स्वजन एवं परिजनों को क्षमा करके, प्रिय वचनों के द्वारा उनसे भी क्षमा मांगे तथा सब पापों की आलोचना करके सल्लेखना धारण करे। क्रमशः अन्नाहार को घटाकर दूध, छांछ, उष्ण जल आदि को ग्रहण करता हुआ उपवास करे। अन्त में पञ्चनमस्कार को जपते हुए सावधनी पूर्वक शरीर को त्यागे। श्री सोमदेव सूरि का कहना है कि सल्लेखनाधारी को उपवासा, द्वारा शरीर को तथा ज्ञानभावना द्वारा कषायों को कृष करना चाहिए। वसुनन्दिश्रावकाचार, श्रावकाचारसारोद्धार, चारित्रसार एवं पुरुषार्थानुशासन आदि श्रावकाचारविषयक ग्रन्थों में सल्लेखना की विधि में रत्नकरण्डश्रावकाचार का ही अनुकरण किया गया है। भगवती आराधना में भक्तप्रत्याख्यान (सल्लेखना) के इच्छुक यति को निर्यापकाचार्य की खोज का निर्देश किया गया है। वहाँ कहा गया है कि समाधि की कामना करने वाला यति पाँच सौ, छह सौ, सात सौ योजन अथवा उससे भी अधिक जाकर शास्त्र सम्मत निर्यापक की खोज करता है। वह यति एक अथवा दो अथवा तीन आदि बारह वर्ष पर्यन्त खेदखिन्न न होता हुआ जिनागम सम्मत निर्यापक की खोज करता है। सामान्यतः सर्वभयों के उपस्थित न होने पर भी जो मुनि मरण की इच्छा करता है, उसे मुनिपने से विरक्त कहा गया है। तथापि अपगजित सूरि का कथन है कि यदि भविष्य में निर्यापक का मिलना असंभावित लग रहा हो तो वह मुनि भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण कर सकता है। वे लिखते हैं- “इदानीमहं यदि न त्यागं कुर्या निर्यापकाः पुनः न लप्स्यन्ते सूरयस्तदभावे नाहं पण्डितमरणमाराधयितुं शक्नोमि इति यदि भयमस्ति भक्तप्रत्याख्यानार्ह एव।"14 अर्थात् जिस मुनि का चारित्र पालन सुखपूर्वक निरतिचार हो रहा हो तथा निर्यापक भी सुलभ न हो और जिसे दुर्भिक्ष आदि का भय भी न हो, ऐसा मुनि यद्यपि
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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