SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 78 अनेकान्त 60/1-2 आचार्य समन्तभद्र के अनुसार भी यदि उपसर्ग, अकाल, बुढ़ापा या रोग उपस्थित हो जाये और उसका प्रतिकार करना संभव न हो तो धर्म की रक्षा के लिए शरीर के त्याग रूप सल्लेखना को धारण करना चाहिए। उनके अनुसार सल्लेखना का आश्रय लेना ही जीवन भर की तपस्या का फल है।' लाटी संहिता में भी व्रती श्रावक को मरण समय में अवश्य धारण करने योग्य मानते हुए जीर्ण आयु, घोर उपसर्ग एवं असाध्य रोग को सल्लेखना का हेतु कहा गया है। पुरुषार्थानुशासन में प्रतीकार रहित रोग के उपस्थित हो जाने पर दारुण उपसर्ग के आ जाने पर अथवा दुष्ट चेष्टा वाले मनुष्यों के द्वारा संयम के विनाशक कार्य प्रारंभ करने पर, जल-अग्नि आदि का योग मिलने पर अथवा इसी प्रकार का अन्य कोई मृत्यु का कारण उपस्थित होने पर या ज्योतिष सामुद्रिक आदि निमित्तों से अपनी आयु का अन्त समीप जानने पर कर्तव्य के जानकार व्यक्ति को सल्लेखना धारण करने का अर्ह कहा गया है। सल्लेखना की अर्हता के विषय में यशस्तिलकचम्पू गत उपासकाध्ययन, चारित्रसार, उमास्वामिश्रावकाचार, हरिवंशपुराणगत श्रावकाचार आदि ग्रन्थों का भी यही मत हैं। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात् शरीर धर्मसाधना का प्रथम साधन है। किसी भी धार्मिक क्रिया की सम्पन्नता स्वस्थ शरीर के बिना संभव नहीं है। अतः जब तक शरीर धर्मसाधना के अनुकूल रहे तव तक उसके माध्यम से मोक्षमार्ग को प्रशस्त करना चाहिए। किन्तु यदि धर्मसाधना के प्रतिकूल हो जाये तो सल्लेखना धारण कर धर्म की रक्षा करना चाहिए। सल्लेखना की विधि श्रावकाचार विषयक ग्रन्थों में सल्लेखना धारण करने की विधि का विस्तार से वर्णन किया गया है। आचार्य समन्तभद्र का कथन है कि
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy