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अनेकान्त 60/1-2
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सभ्यता डूब रही है। उसको चेतना से कोई लेना देना नहीं। देह की पौद्गलिक माया की मोह गली में भ्रमित हो, एवं दिशाहीन होकर भटकाव में जी रहा है। शान्ति पाने के सारे सूत्र उसके हाथ से खिसक गये हैं। सम्वेदनाएँ शून्य हो गयी है तथा धनार्जन का मायावी भूत उसके सिर पर चढ़कर बोल रहा है। आपाधापी के इस संक्रमण काल में यह भाष्य, मानवता के जागरण का शंखनाद कर रहा है। यह भाष्य जीवन की दशा सुधारने में और दिव्य दिशा पाने में एक दिक्सूचक की भांति जीवन का श्रेष्ठ आयाम बनेगा ऐसा मेरा विश्वास है। अज्ञ को विज्ञ बनाना इस भाष्य का इष्ट-फल है। मुनि श्री विशुद्धसागर जी को अध्यात्मयोगी जो सार्थक विशेषण नाम के पूर्व अंकित किया गया, वह वस्तुतः आपके व्यक्तित्व की वह दीप शिखा है जिससे एक रोशनी मिलती है सही जीवन जीने की और अध्यात्म के रसों को अपने जीवन में संजोने की।
इष्टोपदेश भाष्य- द्रव्यानुयोग की एक और अमर कृति बने, इस आस्था से समीक्षाकार मुनि श्री के चरणों में विनत भाव से नमोऽस्तु करता है।
जवाहर वार्ड - बीना (म.प्र.)
धर्मानुप्रेक्षा देवता भविता श्वापि, देवः श्वा धर्मपापतः। तं धर्म दुर्लभं कुर्या, धर्मो हि मुवि कामसूः।।
क्षत्रचूडामणि, 11/78 हे आत्मन्! पाप के प्रभाव से देव भी कुत्ता हो जाता है और धर्म | के प्रभाव से कुत्ता भी देव हो जाता है। इसलिए ऐसे दुर्लभ धर्म को धारण करना प्राणिमात्र का कर्तव्य है। धर्म करने से निश्चय ही संसार में सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।