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वैदिक और श्रमण संस्कृति में आदान-प्रदान : एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया
- डॉ. कमलेश कुमार जैन एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि आप कमरे में दस खिलौने रख दीजिये। उसके बाद दो बच्चों को उन खिलौनों से खेलने के लिये दौड़ दें। थोड़ी देर बाद आप देखेंगे कि दोनों बच्चें एक ही खिलौने से खेलना चाहते हैं और दोनों आपस में लड़ना शुरू कर देंगे। किसी बुजुर्ग व्यक्ति के समझाने पर वे दोनों एक ही बात कहेंगे कि इस खिलौने से पहले मैं खेल रहा था। बुजुर्ग व्यक्ति को यह पता लगाना मुश्किल हो जायेगा कि पहले खिलौने को किसने उठाया था। क्योंकि दोनों बच्चों के तर्क एक दूसरे से बढ़कर होंगे और अन्त में बलिष्ठ और तर्कशील बालक उस खिलौने का हकदार बन जायेगा। मैं समझता हूँ कि कुछ सिद्धान्तों के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है। वैदिक परम्परा में एक पद्य प्रचलित है
मङ्गलं भगवान् विष्णुः मङ्गलं गरुडध्वजः।
मङ्गलं पुण्डरीकाक्षो गोविन्दायतनो हरिः।। इसी प्रकार श्रमण परम्परा की अङ्गभूत दिगम्बर जैन परम्परा में यह पद्य निम्नाङ्कित रूप में उपलब्ध होता है
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी।
मङ्गलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ।। श्वेताम्बर जैन परम्परा में भी यह पद्य किञ्चित् परिवर्तन के साथ इस प्रकार प्रचलित है
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी।
मङ्गलं स्थूलभद्राद्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ।। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि वैदिक परम्परा वालों में उक्त पद्य में अपने