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________________ अनेकान्त 60/1-2 हुआ, जीवन के इष्ट कल्याण के लिए पुरुषार्थ नहीं करता । लोभ कषाय का तीव्र संस्कार कि धन संरक्षण में जीवन ही खो देता है । 68 10. आत्म ध्यान से अभेदात्मक उपयोग की स्थिर दशा प्राप्त करना और संसार के संकल्प विकल्पों से रहित होकर एक निरंजन आत्मा का अनुभव करना उस ग्रन्थ का इष्ट लक्ष्य है। आत्म संसिद्धि के लिए इस ग्रन्थ की आध्यात्मिक संरचना का ताना-बाना बुना गया है। भाष्यकार मुनि श्री विशुद्धसागर जी ने प्रस्तुत भाष्य में आत्म चिन्तन के फलक पर एक वैचारिक क्षितिज प्रस्तुत किया । मन्थन करके अध्यात्म का नवनीत पाने का एक सफल पुरुषार्थ किया और गाथाओं के प्रतिपाद्य विषय को अनेक उदाहरणों और सन्दर्भों द्वारा विस्तारित किया है। इस भाष्य को पढ़कर तत्त्व जिज्ञासु निश्चित ही संयम तप और त्याग वृत्ति की ओर अभिमुख होता हुआ उस मार्ग पर बढ़ने का आत्म बल जुटाता है, जो मोक्ष पथ की ओर ले जाता है। आत्म चिन्तन से कर्म निर्जरा का एक सबल निमित्त साधक को भाष्य पढ़कर मिलता है । पूज्यपाद स्वामी ने इसके अलावा समाधितंत्र और तत्त्वार्थसार जैसे स्वतंत्र आध्यात्मिक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया जो शब्दों में न्यून होकर रहस्य और भावों से भरे हैं। श्री विशुद्धसागर जी ने तत्त्वार्थसार की प्रत्येक गाथा पर स्वतंत्र प्रवचन करते हुए जो अध्यात्म रस छलकाया है वह तो पाठक पढ़कर ही अनुभव कर सकता है । भाष्य में जो इष्टोपदेश गाथाओं की पद्य रचना की गयी है वह प्रसादादि गुणों से युक्त है । अध्यात्म वाणी का संदोहन करके भाष्य की रचना अपने आप में ऐसा ग्रन्थ बन गया जो आत्म-वैभव से परिचित कराता हुआ प्रज्ञा-प्रकाश से भरता है । भाष्य का पठन प्रफुल्लित करता है और भव्य जीव के क्षयोपशम को बढ़ाता है । उसका मिथ्यात्व व अज्ञान स्वयमेव छंटता जाता है और सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है । यह लघु समयसार रूप है जो आत्मा की महनीयता को उजागर करता है । 1 भौतिकवादी भोग संस्कृति के झंझावात में आज सम्पूर्ण मानवीय
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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