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________________ अनेकान्त 60/1-2 है। प्राकृत के बाद धीरे-धीरे एक नई भाषा अपभ्रंश का जन्म लोक-भाषा के रूप में हुआ और ईसा की पांचवी-छठी शताब्दी में वह अपभ्रंश भाषा साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए सशक्त माध्यम बन गई। पं. चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने अपभ्रंश का अर्थ नीचे बिखरना (लोक में विकसित होना) बताया है और कहा है कि- अपभ्रंश एवं देशी भाषा और कुछ नहीं बांध से बचा हुआ वह पानी है, जो नदी मार्ग पर तो चला आया है परन्तु बांध तक नहीं पहँचा है। उनका आशय है कि संस्कृत शब्द एक है तो व्यवहार के प्रवाह में पानी की तरह सरकने वाले अपभ्रंश शब्द अनेक हैं।34 जो अपभ्रंश शब्द ईसा से दो शताब्दी पूर्व अपगमनीय प्रयोग के लिए प्रयुक्त होता था, वही ईसा की छठी शताब्दी तक आते-आते एक साहित्यिक भाषा संज्ञा बन गया। यह भाषा की निरन्तर विकासशील प्रवृति की परिणति है, जो आज भी एक अदृश्य रूप में क्रमिक विकास की ओर बढ़ रही है। सन्दर्भ : 1. अणीयस्त्वाच्य शब्देन संज्ञाकरणं व्यवहारार्थ लोके । - निरुक्त 1/1 2. भारतीय भाषा-विज्ञान - 8 आचार्य किशोरी दास वाजपेयी, पृष्ठ. 6 3. An Interoduction to campratire philology - Page - 4 4. Speeh and lunguage, Page - 1 5. भाषा रहस्य : श्यामसुन्दर कृत अनुवाद पृष्ठ. सं. 7 6. 1. तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः 2. तस्माद्यजुस्तमादजायत (क) ऋग्वेद 10.90.9, (ख) ऋग्वेद 8.100.11 7. शब्दकल्पद्रुप - खण्ड-3 8. न्यायकोश-पृ. स. 627 9. सर्वदर्शनसंग्रह पृ. सं. 164 10. संस्कृत हिन्दी शब्दकोश-आप्टेकृत 11. भाषा विज्ञान डा. कर्णसिंह पृ. सं. 8
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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