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अनेकान्त 60/1-2
पाश्चात्या, पाण्डया, सैहली, कालिङ्गी, प्राच्या, कर्णाटी, काञ्ची, द्राविड़ी, गोर्जरी, अमीरी, मध्यदेशीया एवं वैतालिकी है । इन 27 भेदों में से विद्वानों ने और तीन भेदों में विभक्त किया, जिसमें नागर, उपनागर और ब्राचड् है । अनेकों विद्वान अपभ्रंश को एक स्वतन्त्र भाषा मानते है और अपभ्रंश को प्राकृत एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास मानते हैं । पतञ्जलि ने अपने महाकाव्य में संस्कृत से भिन्न सभी असिद्ध गावी, गोणी, गोता आदि प्राकृत एवं अपभ्रंश के शब्दों को सामान्य रूप से अपभ्रंश कहा है। वस्तुतः प्राकृत का अन्तिम चरण अपभ्रंश माना जाता है
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भारतीय परम्परा के कोशकारों ने अपभ्रंश का अर्थ एवं उत्पत्ति के बारे में लिखा कि यह शब्द भ्रंश् धातु में अप उपसर्ग के योग से बना है । यह दोनों शब्द अप - उपसर्ग और भ्रंश धातु, दोनों का प्रयोग अधः पतन, गिरना, विकृत होना आदि के अर्थो में प्रयुक्त होता है । संस्कृत के प्राचीनतम ग्रन्थों में यह शब्द अपभ्रंश एवं अपभ्रष्ट के नाम से मिलते हैं । इसी प्रकार प्राकृत एवं अपभ्रंश ग्रन्थों में अवहंस अवन्स, अवहट्ट, अवहत्थ, अवहर आदि नामों से इसका उल्लेख मिलता है | 32
डा. नामवर सिंह अपभ्रंश को परिभाषित करते हुए लिखते हैं किभाषा के सामान्य मापदण्डों से जो शब्द रूप भ्रष्ट हो "चूक जायें” वह अपभ्रंश है। यह आवश्यक है कि भाषा का एक सामान्य मापदण्ड बोलियों के अनेक विकृत शब्द रूपों से स्थिर होता है । किन्तु उसके साथ यह भी निश्चित है कि लोक व्यवहार में उस सामान्य मान के विकार होते रहते हैं । संभव है प्रतिमान पर विश्वास रखने वाले विद्वानों ने ऐसे विकारों को अपभ्रंश कहने की परिपाटी बना दी हो। 3
कुछ शताब्दियों तक प्राकृत में विभिन्न प्रकार का साहित्य सृजन होता रहा- यह एक भाषा-वैज्ञानिक सत्य है कि लोक भाषा हमेशा बदलती चलती है । और जो बदलती चलती है वही लोक भाषा होती