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________________ अनेकान्त 60/1-2 ___ मध्ययुग में ईसा की दूसरी से छठी शताब्दी तक प्राकृत भाषा का साहित्य में कई रूपों का प्रयोग हुआ। वैयाकरणों ने प्राकृत भाषा में भी कई नियमों द्वारा एकरूपता लाने का प्रयत्न किया, किन्तु प्राकृत में संस्कृत सदृश एकरूपता नहीं आ सकी। यद्यपि साहित्य में कृत्रिम प्राकृत का प्रयोग प्रारम्भ हो गया था। इससे वह लोक से दूर हटने लगी थी, लेकिन जिन लोक प्रचलित भाषाओं से साहित्यिक प्राकृतों का विकास हुआ वे लोक भाषाएँ अभी भी प्रवाहित हो रही थीं। उन्होंने नई भाषाओं को जन्म दिया, जिसे अपभ्रंश कहा गया। यह प्राकृत भाषा के विकास की तीसरी अवस्था है। प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का क्षेत्र प्रायः एक जैसा था, जिसमें एक विशेष प्रकार का साहित्य-सृजन हुआ। विकास की दृष्टि से इनमें घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः कई विद्वानों ने प्राकृत संस्कृत को एक माना है। जबकि दोनों स्वतंत्र हैं। संस्कृत का प्रभाव प्राकृत एवं अपभ्रंश दोनों पर है। किन्तु प्राकृत की भांति अपभ्रंश का आदर्श संस्कृत भाषा नहीं है। अपभ्रंश जन सामान्य की भाषा का पूर्णतया प्रतिनिधित्व करती है। इसे आभीरी, भाषा, देशी एवं अवहट्ट आदि नाम भी समय-समय पर दिये गये। ये सब नाम अपभ्रंश के विकास को सूचित करते हैं। कहा गया, जो अपभ्रंश एवं हिन्दी को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है, यह आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की पूर्ववर्ती अवस्था है। अपभ्रंश का अर्थ है- च्युत, भ्रष्ट, स्खलित, विकृत या अशुद्ध । अपभ्रंश को ही प्राचीन वैयाकरणों ने प्राकृत का भेद स्वीकार किया है। हेमचन्द्र आचार्य ने इसकी प्रमुख विशेषता बतलाकर इसे शौरसैनीवत् कहा है। इसका साहित्य के रूप में प्रयोग पांचवी शताब्दी के पूर्व होने लगा था। प्राकृत चन्द्रिका में इसके देशादि, भाषादि 27 भेदों का उल्लेख किया है। जिसमें वाचड, लाटी, वैदर्भी, उपनागर, नागर, बार्बर, अवन्ति, पांचाली, टाक्क, मालवी, कैयसी, गोडी, कोन्तली, ओडी,
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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