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अनेकान्त 60/1-2
निरखि सुगुरु निरगंथ जो, निरखि दया ध्रम भेव ।।11 || च च्चा चंचलता तजौ, चंचलता दुख होइ। जो चित कू चंचल करै, चतुर न कहिए सोइ ।।2।। छ छा छिन छिन छिन छवि, छिन छिन जरा दबाब । छिमा गहौ छोभहिं तजौ, छिन छिन आयु घटाय।13।। ज जा जोबन जाय सब, सकति न रहत सरीर जोग करहु सुभ योग कुं, जोग बन्यौ है वीर ।14।। झ झा झूठ न बोलि छूट अजस अधिकाय। झूठ मूल है पाप को, झूठ कुगति ले जाय ।15।। न न्ना नेह न कीजिए, इनि इंद्रिनि मैं जोरि । मूढ़ि ठगोरी मेल्हि कै, लेहि रतनत्रय चोरि ।16।। ट टा टंटा सौं बनिज, तजि करि सदगुरु साह। टो टौ माजै पाछिलौ, होहि अयूरब लाह ।17।। ठ ठा ठाकुर त्यागि, जो नहिं वचन को ठीक। सेइ सुपद सरबग्य जिहिं, कह्यो सुपछर लीक ।।8।। ड डा इरयां न छूटियें, बैरी करम बलिष्ट। जीत्यौ चाहै चतुर मति, करि करुणा मय इप्ट 19 ।। ढ ढ़ा दूरि कित, ढूंढिसू निजि घट माहि। तू ही ग्याता ग्यान तू, दूजी कोऊ नाहि ।20।। राणां रावन राम से, दल बल विभी अपार । तेऊ भए जु बाल बसि, जात न लागी बार 121 ।। त ना तिसना बुद्धि तजि, तरणी संग निवारी चाहत जौ निर्भय भयो, आतम नत्व विचारि 122 ।। थ था थो थी पीजरी, अशुचि रोग को थान। या मैं थिर कहि को रह्यो, थो थो न करि गुमांन ।23 ।। द दा दांन दया बिनां. द्रव्य जांनि सव खेह। देह देह कत करत है, देह देह करि देहा ।24।। ध द्धा धन घर महि गड्या, धरमहि खरच्या नांहि ।