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________________ 30 अनेकान्त 60/1-2 दिखलाते हुए आत्म चिन्तन की ओर प्रेरित किया और गर्व, कुसंग, इन्द्रिय-विषय, तृष्णा, कुसंग के त्याग तथा क्षमा, सत्य सदगुरु सेवा को ग्राहय बतलाया। अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, यमक, दृष्टान्त आदि अंलकारों से अलंकृत माधुर्यपूर्ण भाषा-प्रयोग रचना की कलात्मक विशेषता है। मूल रचना इस प्रकार है परम पुरुष प्रणमूं प्रथम, श्री गुरु गुन आराधि । परम धरम मारग लहै, होहिं सिद्धि सब साधि ।।1।। मा वच दम करि जोरि कैं, वंदौ सारद माय [न अक्षरमाला कहूं, सुनत चतुर सुख पाय ।।2।। ओंकार अपार है, ओं सिद्ध सरूप ओं मारग मुकति कौ, ओं अमृत कूप ।।3।। ई ई ईश्वर ईस करि, ईहा सबै निवारि ए ए एक अनेक मैं, वहि इक मांहि अनेक सुमिरहु किन वहि एक कौ, तजि मन की सब टेक।।4।। अ आ अचंभो एक जिय, आवत है मो नित्त अमर नहीं जग असारहु, क्यौं सुख सोवै नित्त ।।5।। श्री श्री श्री शिव सदन की, चाहत मन वच काय धंध जाल पर त्यागि सब, निज आतम मन लाय ।।6।। क का काहु पुन्य फल, पाई मनिषा देह करि कारज कछु धरम कौ, नर भव लाही लेह ।।7।। ख खा खोटी बुद्धि तजि, खोटो संग निवारि खरचि सुभाग्ग संपदा, षटिसु जस ससार, । 18 ।। ग गा गरव न कीजियै, गही समारिंग चाल गाफिल हुवा जिनि रहौ, गरजति सिर पर काल ।। ।। घग्घा घट वधि करम है, घटि वधि जीव न कोइ जो घटि सो बढि छिनक मैं, जो बढि सो घटि होइ।।10।। नन्ना निरखि सुसंपदा, निरषि निरंजन देव
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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