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मनराम कृत बारहखड़ी काव्य 'गुरु अक्षरमाला'
-डॉ. गंगाराम गर्ग हिन्दी और राजस्थानी के जैन साहित्य में 'रासो' 'लूहरि' 'बारहखड़ी' अथवा 'बावनी', बारहमासा आदि अनेक काव्य रूपों के प्रयोग की परम्परा रही। इनमें 'रासो' के समान बारहखड़ी या 'बावनी' भी प्राचीनतम काव्यरूप है। 'ककहरा' और 'अखरावट' आदि इस काव्य रूप के अमर नाम भी जैनेतर काव्य परम्परा में प्राप्त हैं। बारहखड़ी अथवा 'बावनी' संज्ञक काव्यों में प्रत्येक स्वर और व्यंजन तथा कभी व्यंजन के साथ सभी स्वर रूपों के प्रयोग के साथ एक-एक छंद की रचना होती है। श्वेताम्बर जैन परम्परा में हीरानंद (सं. 1648-68) कृत 'अध्यात्म बावनी', लालचंद (रचनाकाल 1672-1695 वि.) कृत 'वैराग्य बावनी' हंसराज कृत 'ज्ञान बावनी,' धर्मवर्द्धन (1700-1783 वि.) कृत 'धर्म बावनी' जिनहर्ष द्वारा संवत् 1738 वि. में लिखित जसराज बावनी
और केशवदास द्वारा संवत 1736 में लिखित 'केशवदास बावनी' अधिक चर्चित रही। दिगम्बर जैन परम्परा में पं. दौलतराम कासलीवाल और चेतनकवि कृत दो अध्यात्म बारहखड़ी कृतियां पूर्ण बारहखड़ी काव्य हैं।
डॉ. कामता प्रसाद जैन ने जैन साहित्य का इतिहास पुस्तक में 437 छंद की इस वृति को उपदेश पूर्ण और उतम काव्य रहा है।
महयन्दिरा कृत दोहा पाहुड़ (सं. 1250 वि.) प्राचीनतम बारहखड़ी रचना है। हर्षकीर्ति कृत 'कंको' सूरति कृत 'अध्यात्म बारहखड़ी' और गुरु अक्षरमाला के नाम से लिखित मनराम की रचना अप्रकाशित बारहखड़ी काव्य है। बारहखड़ी काव्यों के प्रतिपाद्य 'अध्यात्म' और 'नीतितत्व' का उल्लेख ही मनगम के काव्य में हुआ है। मनराम ने अपनी रचना में कर्म की प्रबलता और काल की भयावहता का भय