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________________ 56 अनेकान्त 60/4 उदाहरण बन गया है। इसी प्रकार 15वें पद्य में कामपरीषह के आने पर ऋषभदेव का सुमेरु पर्वत के समान अडोल अनेय रहना वीरत्व (संयमवीर) या वीररस का अनुपम निदर्शन कवि ने किया है। चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभिर् नीतं मनागमि मनो न विकारमार्गम् । कल्पान्तकालमरुताचलिता चलेन किं मंदरादिशिखरं चलितं कदाचित् ।। अर्थात् हे वीतराग प्रभु ! स्वर्ग की परम रूपवती अप्सराओं ने अपने अनेक उत्तेजक हावों-भावों एवं विलास चेष्टाओं द्वारा आपके मन को चंचल या आकृष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया, परन्तु आपका परम संयमी विरागी मन रंचमात्र भी विचलित नहीं हुआ तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि भला, सामान्य पर्वतों को झकझोर देने वाला प्रलयकालीन प्रभंजन (हवा) क्या सुमेरु पर्वत के शिखर को भी हिलाने का कभी दुःसाहस कर सकता है ? कदापि नहीं ? इस दृष्टि से भक्तामर स्तोत्र का इकतीस वाँ पद्य भी काफी महत्त्वपूर्ण है छन्नत्रयं तव विमति शशाङ्ककान्त मुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकर प्रतापम् । मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभ, प्रख्यापयत्यिजगतः परमेश्वरत्त्वम् ।।31 ।। हे प्रभो! आपके मस्तक के ऊपर स्थित तीन छत्र, जो कि सूर्य किरणों को भी पराजित कर रहें हैं- ये चन्द्रमा की कान्ति के समान सुशोभित हैं। इन छत्रों के चारों ओर सजी मणि-मुक्ताओं की झालरें इन्हें और भी नयनाभिराम बनाती हुई आपके तीन लोक के आधिपत्य को
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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