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________________ अनेकान्त 60/4 57 विज्ञापित कर रही हैं __इस पद्य में प्रथम तीर्थकर का चक्रवर्तित्व रूप का विवेचन वीररस के उत्कृष्ट उदाहरण का द्योतन कर रहा है। साथ ही इसमें उपमा अलंकार तथा प्रसांदगुण युक्त शैली का अद्भुत संयोजन देखते ही बनता है। यद्यपि कवि ने प्रत्येक पद्य में किसी न किसी रूप में रसों का संयोजन अपने कौशल से प्रस्तुत किया है किन्तु भगवान आदिनाथ के सौन्दर्य के वर्णन-प्रसंग में विशेषकर पद्य सं० 17 एवं 19 में कवि ने बड़ी कुशलता के साथ अद्भुत रस का अच्छा प्रयोग किया है यथा नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति। नाम्भोधरोधरनिरुद्वमहाप्रभावः, सूर्यातिशायि महिमाति मुनीन्द्र लोके ।। अर्थात् हे मुनीन्द्र ! आपकी तेजस्विता सूर्य से भी अधिक है। क्योंकि आप केवल ज्ञान रूपी ऐसे सूर्य के धारक हैं जो तीनों लोकों को सदा ज्ञान-प्रकाश देता है, जो कभी अस्त नहीं होता। सूर्य को तो राहू ग्रस लेता है परन्तु आपको कोई प्रकाशहीन नहीं कर सकता, आप अजातशत्र हैं। सूर्य का प्रकाश क्षेत्र सीमित है, पर आप तो त्रिभवन को सदा प्रकाश दान देते रहते हैं। सूर्य को तो मेघ (बादल) आच्छादित कर लेते हैं, किन्तु आपकी प्रकाश शक्ति को कोई भी अवरुद्ध नहीं कर सकता। यहाँ भगवान् का जो केवल ज्ञान सूर्य समस्त त्रिलोक को प्रकाश युक्त करता है, वह बात भौतिक सूर्य में असम्भव है। इस कथन के द्वारा आपने कवि समकक्ष उपमानों को कभी हीन सिद्ध करके और कभी समतुल्यता का ही निषेध करके उपमेय (भगवान के गुणों) की सर्वोच्चता सिद्ध करते हैं। इसी प्रकार पद्य सं० 19
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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