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________________ अनेकान्त 60/4 55 नहीं हैं। पाश्र्वाभ्युदय, जयोदय आदि अनेक महाकाव्यों तथा प्रथमानुयोग के अनेक पुराणों में नवरसों का भरपूर समावेश देखने को मिलता है हों। प्रसंगानुसार या कथानक के अनुसार प्रत्येक काव्य शृंगार या शान्त रस या अन्य रस की प्रधानता से युक्त तो होता ही है।। प्रस्तुत भक्तामर स्तोत्र बसन्ततिलका नामक एक ही छन्द के अड़तालीस पदों में निबद्ध एक ऐसा स्तोत्र काव्य है जिसका प्रत्येक पद्य रसानुभूति एवं काव्य के समस्त लक्षणों से युक्त है। नवरसों से युक्त इस स्तोत्र में अथ से इति तक रमणीयता भरी हुई है। यद्यपि सच्चे भक्त के रूप में कवि ने तीर्थंकर ऋषभदेव एवं उनके विभिन्न गुणों की स्तुति इस स्तोत्र के माध्यम से की है अतः भक्तिरस का प्रवाह सर्वत्र स्वाभाविक रूप में प्रसरित होने से शान्तरस की यहाँ प्रधानता है, किन्तु भक्ति के प्रसंग में अपने आन्तरित भावों को प्रकट करते हुए उन्होंने इसमें वीर, अद्भुत आदि अनेक रसों का संयोजनकर इस स्तोत्र को श्रेष्ठ एवं सफल काव्य का रूप प्रदान किया है। ___ वीर रस का एक ऐसा अद्भुत उदाहरण कवि ने प्रस्तुत करते हुए कहा है सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश, कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः। प्रीत्याऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ।। इस पद्य में कवि ने जहाँ विनय, भक्ति और स्तुति की संकल्पना को मनोहारी शैली में व्यक्त किया है, वहीं अपनी अल्पज्ञता और असमर्थता व्यक्त करते हुए कवि ने हरिणी का उदाहरण दिया है कि अपने शिशु की रक्षार्थ कमजोर हरिणी भी सिंह जैसे खूखार और बलशाली का भी मुकाबला करने को उद्यत रहती है। अपने कर्तव्य पर प्राण न्योछावर करने वाली हरिणी का यह उदाहरण वीर रस के प्रयोग का अप्रतिम
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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