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________________ 38 अनेकान्त 60/4 अमृतचन्द्र ने उक्त पाँच अनर्थदण्डों में द्यूतक्रीडा को जोड़कर छह अनर्थदण्डों का वर्णन किया है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा दुःश्रुति को पृथक् अनर्थदण्ड के रूप में उल्लिखित न करके इसका अन्तर्भाव अपध्यान (आर्त्त-रौद्रध्यान) में करती प्रतीत होती है।24 निष्प्रयोजन पाप का उपदेश देना पापोपदेश अनर्थदण्ड है। इसके अन्तर्गत प्राणीपीडक, युद्धप्रोत्साहक, ढगाई करने वाले, स्त्री-पुरूष का समागम कराने वाले उपदेश सामिल हैं।25 सागारधर्मामृत में उन समस्त वचनों को पापोपदेश अनर्थदण्ड कहा गया है, जो हिंसा, झूठ आदि से सम्बद्ध हों। उनका कहना है कि व्याघ, ढग, चोर आदि को उपदेश नही देना चाहिए और न ही गोष्ठी में इस प्रकार की चर्चा करना चाहिए। आचार्य पूज्यपाद के अनसार विष, कांटा, शस्त्र, अग्नि, आयुध सींग, सांकल आदि हिंसा के उपकरणों का दान हिंसादान नामक अनर्थदण्ड है।27 अन्य आचार्यों ने भी इसे ही हिंसादान माना है। गृहस्थी के लिए कभी-कभी आग, मुसल, ओखली आदि को अन्य से लेना पड़ता है। अतः पं० आशाधर जी ने इनकी छूट दी है। परन्तु अनजान व्यक्ति को अग्नि आदि देने का निषेध किया है। क्योंकि वह इनका उपयोग गृहदाह आदि में कर सकता है। यहाँ यह विशेष ध्यातव्य है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में हिंसक पशुओं के पालन को भी इस अनर्थदण्ड में सम्मिलित किया गया है। आर्त एवं रौद्र खोटे ध्यान की अपध्यान संज्ञा है। पीडा या कष्ट के समय आर्त्तध्यान तथा वैरिघात आदि के समय रौद्रध्यान होता है। इनका ध्यान नहीं करना चाहिए। यदि प्रसंगवश इनका ध्यान हो जाये तो तत्काल दूर करने का प्रयास करना चाहिए। समन्तभद्राचार्य के अनुसार राग-द्वेष से अन्य की स्त्री आदि के नाश होने, कैद होने, कट जाने आदि के चिन्तन को अपध्यान नामक अनर्थदण्ड कहा गया है।28 सर्वार्थसिद्धि में दूसरों की हार-जीत, मारण, ताडन, अंग छेदन आदि के विचार को अपध्यान कहा गया है। दुःश्रुति को अशुभश्रुति भी कहा गया है। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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