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अनेकान्त 60/4
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अनर्थदण्डव्रत का स्वरूप
आचार्य पूज्यपाद ने उपकार न होने पर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है, उसे अनर्थदण्ड कहा है और उससे विरक्त होने का नाम अनर्थदण्डव्रत है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार दिशाओं की मर्यादा के अन्दर-अन्दर निष्प्रयोजन पाप के कारणों से विरक्त होने को अनर्थदण्डव्रत माना गया है।20 कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्पष्टतया प्रतिपादित किया गया है कि जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सिद्ध होता नही है, केवल पाप का बन्ध होता है, उसे अनर्थदण्ड कहते हैं।1 अनर्थदण्ड अर्थात् निष्प्रयोजन पाप के त्याग का नाम अनर्थदण्डव्रत है।
संसारी प्राणी का सर्वथा निष्पाप या निरपराध हो पाना संभव नही है। अपने स्वार्थ, लोभ, लालसा आदि की पूर्ति के लिए अथवा मात्र अपने सन्तोष के लिए वह प्रतिक्षण पापपूर्ण कार्यों को करता रहता है। यद्यपि राजकीय कानूनों के तहत वह इन कार्यों से अपराधी नही माना जाता है तथापि धार्मिक दृष्टि से वह कदाचार का दोषी है। अतः श्रावक को गुणात्मक वृद्धि के निमित्त अनर्थदण्डव्रत नामक गुणव्रत का विधान किया गया है।
अनर्थदण्डव्रत के भेद
निष्प्रयोजन पाप पाँच कारणों से होता है। कभी यह आर्त एवं रौद्र ध्यान के कारण होता है, कभी पापपूर्ण कार्यों को करने के उपदेश के कारण होता है, कभी असावधानीवश आचरण के कारण होता है, कभी जीव हिंसा में कारण बनने वाली सामग्री को प्रदान करने से होता है तथा कभी यह पाप कामोत्तेजक कथाओं आदि के सुनने से होता है। इन्हीं को आधार बनाकर अनर्थदण्डव्रत के पाँच भेद किये गये हैं। पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या ।22 अनर्थदण्डों की संख्या में कहीं-कहीं अन्तर भी दृष्टिगोचर होता है। आचार्य