________________
16
अनेकान्त 60/1-2
भारतवर्ष को जीतकर साठ हजार वर्ष में दिग्विजय से वापस लौटे। जब वे सब कार्य कर चुके तब उनके चित्त में यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि दूसरे के उपकार में मेरी इस सम्पदा का उपयोग किस प्रकार हो सकता है? मैं श्री जिनेन्द्रदेव का बड़े ऐश्वर्य के साथ महामह नामक यज्ञ कर धन वितरण करता हुआ समस्त संसार को सन्तुष्ट करूं। सदा निःस्पृह रहने वाले मुनि तो हम लोगों से धन-धान्य आदि सम्पत्ति के द्वारा पूजा करने के योग्य है। जो अणुव्रत को धारण कराने वाले हैं, धीर-वीर हैं और गृहस्थों में मुख्य हैं ऐसे पुरुष ही हम लोगों के द्वारा इच्छित धन तथा सवारी आदिक वाहनों के द्वारा तर्पण करने के योग्य हैं। इस प्रकार सत्कार करने के योग्य व्यक्तियों की परीक्षा करने की इच्छा से राजराजेश्वर भरत ने उस समय समस्त राजाओं को बुलाया और सबके पास खबर भेज दी कि आप लोग अपने-अपने सदाचारी इष्ट मित्र तथा नौकर-चाकर आदि के साथ आज हमारे उत्सव में अलग-अलग आवें। इधर चक्रवर्ती ने उन सबकी परीक्षा करने के लिए अपने घर के आंगन में हरे-हरे अंकुर, पुष्प और फल खूब भरवा दिये। उन लोगों में जो अव्रती थे वे बिना किसी सोच-विचार के राजमन्दिर में घुस आये। राजा भरत ने उन्हें एक ओर हटाकर बाकी बचे हुए लोगों को बुलाया परन्तु बड़े-बड़े कुल में उत्पन्न हुए और अपने व्रत की सिद्धि के लिए चेष्टा करने वाले उन लोगों ने जब तक मार्ग में हरे अंकुर है, तब तक उसमें प्रवेश की इच्छा नहीं की। पाप से डरने वाले कितने ही लोग दयालु होने के कारण हरे धान्यों से भरे हुए राजा के आंगन का उल्लंघन किये बिना ही वापिस लौटने लगे, परन्तु जब चक्रवर्ती ने उनसे बहत ही आग्रह किया तब वे दूसरे प्रासुक मार्ग से राजा के आंगन को लांघ कर उनके पास पहुंचे। आप लोग पहले किस कारण से नहीं आये थे और अब किस कारण से आये है? ऐसा जव चक्रवर्ती ने उनसे पूंछा तब उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया- आज पर्व के दिन कोंपल, पत्ते तथा पुष्प आदि का विघात नही किया जाता और न जो अपना कुछ बिगाड़ करते है ऐसे उन कोंपल आदि मे उत्पन्न होने वाले जीवों का भी विनाश किया जाता