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अनेकान्त 60/1-2
है । हे देव । हरे अंकुर आदि में अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं, ऐसे सर्वज्ञ देव के वचन हम लोगों ने सुने है । इसलिए जिसमें गीले- गीले फल, पुष्प और अंकुर आदि से शोभा की गई है ऐसा आपके घर का आंगन आज हम लोगों ने नहीं खूंदा है। इस प्रकार उनके वचनों से प्रभावित हुए, सम्पत्तिशाली भरत ने व्रतों में दृढ़ रहने वाले उन सबकी प्रशंसा कर उन्हें दान, मान आदि सत्कार से सम्मानित किया । पद्म नामकी निधि से प्राप्त हुए एक से लेकर ग्यारह तक की संख्या वाले ब्रह्मसूत्र नाम के सूत्र से ( व्रतसूत्र ) से उन सबके चिह्न दिये । प्रतिमाओं के द्वारा किये हुए भेद के अनुसार जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण किये है ऐसे इन सब का भरत ने सत्कार किया तथा जो व्रती नहीं थे उन्हें वैसे ही जाने दिया । भरत चक्रवर्ती ने जिनका सम्मान किया है, ऐसे व्रत धारण कराने वाले लोग अपने-अपने व्रतों में और भी दृढ़ता को प्राप्त हो गये तथा अन्य लोग भी उनकी पूजा आदि करने लगे । भरत ने उन्हें उपासकाध्ययनांग से इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश दिया । विधि से जो जिनेन्द्रदेव की महापूजा की जाती है उसे विधि के जानने वाले आचार्य इज्या नामकी प्रथम वृत्ति कहते हैं । विशुद्ध आचरणपूर्वक खेती आदि का करना वार्ता कहलाती है तथा दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति ये चार प्रकार की दत्ति कही गयी हैं ।
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अनुग्रह करने योग्य प्राणियों के समूह पर दयापूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि के साथ उनके भय दूर करने को पण्डित लोग दत्ति मानते हैं । महातपस्वी मुनियों के लिए सत्कारपूर्वक पड़गाह कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्रदान कहते हैं । क्रिया, मन्त्र और व्रत आदि से जो अपने समान हैं तथा जो संसार समुद्र से पार कर देने वाला कोई अन्य उ त्तम गृहस्थ है उसके लिए पृथ्वी, स्वर्ण आदि देना अथवा मध्यमपात्र के लिए समान बुद्धि से श्रद्धा के साथ जो दान दिया जाता है वह समानदत्ति है । अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र की