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अनेकान्त 60/3
ग्यारहवीं प्रतिमाधारी का मोह अभी किञ्चित् शेष है उसी का यह फल है कि वह पूर्ण जिनरूप मुनि मुद्रा धारण करने में असमर्थ है। अपने उद्देश्य से बनाए गए भोजन को भी स्वीकार नहीं करता। भोजन को भी स्वीकार न करने से यह अभिप्राय है कि नवकोटि से विशुद्ध भोजन को ही स्वीकार करता है। तथा भोजन की तरह ही अपने उद्देश्य से बने उपधि, शय्या, आसन आदि को भी स्वीकार नहीं करता।34 __पं. आशाधर जी ने इस प्रतिमा के दो भेद किये हैं जिसका नामकरण लाटी संहिता में क्षुल्लक एवं ऐलक किया गया है। इनका स्वरूप क्रमशः उद्धत किया जाता है
1. क्षुल्लक- प्रथम उत्कृष्ट श्रावक एक सफेद कोपीन, लंगोटी, और उत्तरीय वस्त्र धारण करता है। वह अपने दाढ़ी, मूंछ और सिर के बालों को कैंची या छुरे से कटवा सकता है। उठते-बैठते हुए जन्तुओं को बाधा न पहुँचाने वाले कोमल वस्त्र वगैरह से (मयूर पिछी का निर्देश नहीं हैं) स्थान आदि को साफ करे और दो अष्टमी दो चतुर्दशी इन चारों पर्यों में चारों प्रकार के आहार के त्याग पूर्वक उपवास अवश्य करता
है।
प. आशाधर जी ने इसके भी दो भेद कर दिये हैं, एक अनेक घर से भिक्षा लेने का नियम वाला और दूसरा एक घर से ही भिक्षा लेने का नियमवाला। एक घर से ही भिक्षा लेने वाला उत्कृष्ट श्रावक मुनियों के पश्चात् दाता के घर में जाकर भोजन करता है। यदि भोजन न मिले तो नियम से उपवास करता है। परन्तु अनेक घर से भिक्षा लेने वाला श्रावक हाथ में पात्र लेकर, श्रावक के घर जाकर, धर्मलाभ, कहकर भिक्षा की प्रार्थना करता है अथवा मौन पूर्वक अपना शरीर श्रावक को दिखाकर, भिक्षा के मिलने या न मिलने में समभाव रखते हुए आगे बढ़ जाता है। पर्याप्त भोजन मिल जाने पर प्रासुक जल प्राप्त कर शोधन करके भोजन करता है। प्राप्त भोजन का मुनि आदि को दान भी कर सकता है।