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अनेकान्त 60 / 3
2. ऐलक - दूसरे उत्कृष्ट श्रावक की क्रिया पहले के समान है । विशेष यह है कि यह आर्य कहलाता है, दाढी, मूंछ और सिर के बालों को हाथ से उखाड़ता है, केवल लंगोटी पहनता है और मुनि की तरह पीछी रखता है। अन्य गृहस्थ के द्वारा अपने हस्तपुट में ही दिये गये आहार को सम्यक्रूप से शोधन कर ग्रहण करता है। इन श्रावकों को आपस में, इच्छाकार, कहते हुए विनय व्यवहार करना चाहिए। ये श्रावक वीर चर्या, दिन प्रतिमा योग, आतापन आदि त्रिकाल योग, सूत्र रूप परमागम और प्रायश्चित शास्त्र के अध्ययन के अधिकारी नहीं है ।
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संसार परिभ्रमण का नाश करने के लिए दान, शील, उपवास और जिनादि पूजन के भेद से भी चार प्रकार का अपना आचार, श्रावकों को अपनी-अपनी प्रतिमा सम्बन्धी आचरण के अनुसार करना चाहिए। तथा गुरु अर्थात् पञ्च परमेष्ठी, दीक्षा गुरु और प्रमुख धार्मिक पुरुषों से लिए गये व्रत को प्राणान्त होने पर भी भंग नहीं करना चाहिए। एवं निरंतर भावना करना चाहिए कि मैं शास्त्रोक्त विधि के अनुसार मरण के समय होने वाली सल्लेखना को अर्थात् समाधि पूर्वक मरण अवश्य करुंगा।
मुनि बनने की इच्छा होते हुए भी स्वयं को शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, एवं आध्यात्मिक रूप से परिपक्व करने में ग्यारह प्रतिमाओं का यह वैज्ञानिक क्रम अधिकाधिक सहायक सिद्ध होता है। एक सामान्य पुरुष भी क्रमशः इन सोपानों को प्राप्त करता हुआ दृढ़ चारित्र वाला, सम्यक्त्वी और पर्याप्त ज्ञान का अर्जन कर मोक्षमार्ग का राही हो सकता है। वर्तमान युग इस प्रकार प्रतिमाओं का पालन करते हुए गृहस्थ धर्म का निर्वाह कर आत्म कल्याण करने में सक्षम है।