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अनेकान्त 60/3
परन्तु प्राणिवध से रहित व्यापार करना संभव नहीं है। अत एव यहाँ धार्मिक कार्यों पूजा आरती आदि का निषेध नहीं है।
यह श्रावक अपना व्यापार आदि अपने योग्य पुत्रादि को सौंप देता है, आवश्यकता पड़ने पर सलाह और अनुमति भी दे सकता है। वस्त्रों का प्रक्षालन भी प्रासुक जल से स्वयं करता है अथवा साधर्मी से करवाता है। अर्थात् अपने लिए या दूसरे के लिए जिसमें आरम्भ का लेश भी हो उस क्रिया को नहीं करता। जो मुमुक्षु पाप से डरता हुआ भोजन भी छोड़ना चाहता है वह जीवघात वाली क्रियाएँ कैसे कर या करा सकता है?
9. परिग्रह त्याग प्रतिमा
पहले की दर्शन आदि प्रतिमा संवधी व्रतो के समूह से जिसका सन्तोष बढ़ा हुआ है वह आरंभ विरत श्रावक (ये मेरे नहीं हैं और न मैं इनका हूँ) ऐसा संकल्प करके मकान, खेत आदि परिग्रहों को छोड़ देता है उसे परिग्रह विरत कहते हैं।29
परिग्रह में जो ममत्व भाव होता है उसके त्याग पूर्वक परिग्रह के त्याग को परिग्रह विरत कहते हैं। ये मेरा नहीं है और न मैं इनका हूँ, इसका मतलब है कि न मैं इनका स्वामी और भोक्ता हैं और न ये मेरे स्वत्व और भोग्य हैं। इस संकल्प पूर्वक परिग्रह का त्याग किया जाता
है।
परिग्रह क्रोधादि कषायों की, आर्त और रौद्र ध्यान की, हिंसा आदि पाँच पापों की तथा भय की जन्मभूमि है, धर्म और शुक्ल ध्यान को पास भी नहीं आने देती ऐसा मानकर दस प्रकार के बाह्य परिग्रह से निवृत्त संतोषी श्रावक परिग्रह त्यागी होता है।"
पं. आशाधर जी ने अपनी पूर्ण सम्पदा का मकान, स्वर्ण आदि का सकलदत्ति पूर्वक अन्वय दान करने की विधि बताते हए वस्त्र मात्र