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अनेकान्त 60/3
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3. सामायिक प्रतिमा
मोह और क्षोभ से रहित आत्म परिणाम को साम्य कहते हैं। दर्शन मोह जन्य परिणाम मोह है और चारित्रमोह जन्य परिणाम क्षोभ हैं। इनसे रहित परिणाम साम्य हैं। साम्यभाव का धारी सामायिक प्रतिमा वाला है। सामायिक तीनों संध्याओं में की जाती है। उस समय कष्ट
आने पर साम्यभाव से विचलित नहीं होना चाहिए। तभी वह सामायिक प्रतिमा कहलाती है। __सामायिक की विधि बताने के लिए आ. समन्तभद्र का अनुसरण किया है। तीन बार चतुरावर्त करके, चार प्रणाम करके जातरूप में स्थित होकर दो आसनों से त्रियोग शुद्ध होकर, तीनों संध्याओं में
अभिवन्दन करते हुए सामायिक करनी चाहिए। ___सामायिक प्रतिमा वाला भी पूर्व में कहे बारह व्रतों का पालन करता है। उनमें भी सामायिक व्रत है। परन्तु इनमें पर्याप्त अंतर अवलोक्य है। सामायिक व्रत में एक बार या दो बार या तीन बार सामायिक की जाती है परन्तु तृतीय प्रतिमा में तीनों बार नियम पूर्वक सामायिक होनी चाहिए तथा व्रत अतिचार सहित होता है, परन्तु प्रतिमा में निरतिचार पालन की प्रमुखता है। मुनिवत् सामायिक करना इस प्रतिमा का लक्ष्य है। यदि सामायिक व्रत देवालय का शिखर है तो सामायिक प्रतिमा शिखर पर होने वाला कलशारोहण है।" 4. प्रोषधोपवास प्रतिमा __जो श्रावक दर्शन, व्रत और सामायिक प्रतिमा में सिद्ध अर्थात् परिपूर्ण होता हुआ प्रोषधोपवास की प्रतिज्ञा के विषयभूत सोलह पहर पर्यन्त साम्यभाव से अर्थात भाव सामायिक प्रतिमा में सामायिक करते हुए जो स्थिति भावसाम्य की रहती है वैसी ही स्थिति प्रोपधोपवास में सोलह पहर तक रहनी चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि वह सोलह पहर तक ध्यान में बैठा रहता है। मतलव है साम्यभाव के बने रहने से।