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________________ अनेकान्त 60/3 विधिपूर्वक मरण प्राप्त करने वाले जीव को स्वर्गादि अभ्युदयों की प्राप्ति होगी ऐसा निर्देश करते हुए पं. आशाधर जी कहते हैं । कि 28 श्रावको श्रमणो वान्ते कृत्वा योग्यां स्थिराशयः । शुद्धस्वात्मरतः प्राणान् मुक्त्वा स्यादुदितोदितः । । " अर्थात् जो श्रावक अथवा मुनि आगे कही जाने वाली विधि कं अनुसार एकाग्र चित्त से अपनी शुद्धात्मा में लीन होकर प्राण छोड़ता है, उसे स्वर्गादि अभ्युदयों की प्राप्ति होती है तथा मोक्ष का भागी होता है । यह कथन वर्तमान हुंडावसर्पिणी काल को ध्यान में रखकर कहा गया है । अन्य ग्रन्थकारों ने लिखा है कि उत्तम समाधि धारक मोक्ष प्राप्त करता है । मध्यम समाधि धारक सर्वार्थसिद्धि, ग्रैवेयको, परमोत्तम सोलहवें स्वर्ग में, सौधर्मादि स्वर्गों में भोगों को भांगकर अन्त में तीर्थंकर या चक्रवर्ती पद की प्राप्ति करता है । जो जघन्य रीति से धारण करता है । वह देव एवं मनुष्यों के सुखों को भांगकर सात-आठ भव मे मोक्ष प्राप्त करता है । मृत्यु अवश्यम्भावी है शरीर ही धर्म का मुख्य साधन है इसलिए यदि शरीर रत्नत्रय की साधना में सहयोगी हो तो उसे जबरदस्ती नष्ट नहीं करना चाहिए और यदि वह छूटता हो तो उसका शोक नहीं करना चाहिए। क्योंकि मृत्यु तो अवश्यंभावी है और किसी के द्वारा भी तद्भवमरण प्राप्त जीव की रक्षा संभव नहीं है । " सत्य तो यह है कि शरीर का त्याग करना कठिन नहीं है, किन्तु चारित्र का धारण करना और उसके द्वारा धर्मसाधना करना दुर्लभ है।" यदि शरीर स्वस्थ हो तो आहार-विहार से स्वस्थ बनाये, यदि रोगी हो तो औषधि से भी अधर्म का ही साधन बने या रोग वृद्धिगंत हो तो दुर्जन की तरह इसको छोड़ना ही श्रेयस्कर है । 21 वस्तुतः यह धर्म ही इस शरीर को इच्छित वस्तु प्रदान करने वाला है। शरीर तो मरणोपरान्त पुनः सुलभ है किन्तु धर्म अत्यन्त दुर्लभ है।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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