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अनेकान्त 60/3
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11. सल्लेखना के अतिचार पं. प्रवर आशाधर जी ने पाँच अतिचारों से रहित सल्लेखना विधि में क्षपक प्रवृत्ति करे, इस प्रकार का उपदेश देते हुए कहा है कि
जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागं सुखानुबन्धमजन् ।
स निदानं संस्तरगश्चरेच्च सल्लेखना विधिना ।। अर्थात् संस्तर (सल्लेखना) में स्थित क्षपक जीवन तथा मरण की इच्छा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान को छोड़ते हुए सल्लेखना विधि से आचरण करे।
जीवनाकांक्षा- सल्लेखना के समय अपनी प्रसिद्धि देखकर अपनी सेवा करने वालों को देखकर, अपनी महिमा जानकर या अन्य किसी कारण से और जीने की आकांक्षा रखने वाले को जीवनाकांक्षा रूप अतिचार लगता है। ___ मरणाशंसा- रोगादिक से प्राप्त कष्ट से जिस साधक का मन संक्लेशित होने लगे और पीड़ा सहन न कर पाने की स्थिति में शीघ्र मरण की भावना करना मरणाशंसा है।
सुहृदनुराग- बाल्यावस्था में अपने साथ खेलने वाले, बुरे समय में साथ देने वाले मित्रों से मृत्यु से पूर्व मिलने की आकांक्षा सुहृदनुराग है।
सुखानुबन्ध- पूर्व में भोगे गये भोगों का स्मरण करना तथा उनमें अनुराग रखना। सुखानुबन्ध नामक अतिचार है।
निदान- समाधि के कठिन तपों के प्रभाव से जन्मान्तर में मुझे उच्च कोटि का वैभव प्राप्त हो, इस प्रकार की भावना निदान नामक पाँचवाँ अतिचार है।
12. समाधि का फल
समाधिमरण की विस्तृत विधि का कथन करने के उपरान्त अतिचारों का भी विधिवत् निरूपण सागारधर्मामृत में है, इसके पश्चात्